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संत को पहचानना महा कठिन है
जिसने बुराई को काट कर न फेंका। वह कोई बहुत कुशल कारीगर नहीं है जो चीजों को फेंक दे। कुशल कारीगर तो वही है कि हर चीज का उपयोग कर ले। और चीजों का मूल्य चीजों पर नहीं होता, उनके उपयोग पर होता है। कैसे तुम उन्हें जमाते हो, इस पर निर्भर करता है। पूर्ण के भीतर कोई खंड किस भांति जमाया गया है, इस पर निर्भर करता है।
संगीत शोरगुल है, लेकिन कुशल कलाकार उस शोरगुल को ऐसा जमाता है कि तुम्हारा हृदय नाच उठता है। संगीत है तो शोरगुल। एक बंदर को पकड़ा दो सितार; वह भी बजाएगा, लेकिन तुम्हें पागल कर देगा-अगर बजाता रहा। सितार वही है, लेकिन उसी को कोई कुशल संगीतज्ञ छुता है, स्वरों के बीच जो वैपरीत्य है, विरोध है, वह खो जाता है, स्वर एक संगीत में बंध जाते हैं, और सभी स्वरों के मेल से एक चीज पैदा होती है जो स्वरों के पार है। संगीत स्वरों का जोड़ नहीं है, स्वरों के जोड़ से कुछ ज्यादा है। वह जो कुछ ज्यादा है वही तो कुशल संगीतज्ञ की कला है।
सौंदर्य फूल के अंगों का जोड़ नहीं है, उससे कुछ ज्यादा है। इसीलिए तो उसकी व्याख्या नहीं हो पाती। प्रेम दो प्रेमियों का मिलन नहीं है; किसी तीसरे का अवतरण है। दो तो केवल मौजूदगी हैं; उन दो के बीच में तीसरा उतर आता है। इसीलिए तो प्रेम अव्याख्य है। और इसीलिए तो प्रेम परमात्मा जैसा है, और प्रेम प्रार्थना बन जाता है। इसलिए प्रेम को कोई समझा न सकेगा। तुम प्रेमियों को समझा सकते हो, प्रेमी की व्याख्या हो सकती है, उसका सब पता-ठिकाना बता सकते हो। लेकिन प्रेम का कोई पता-ठिकाना है? जब दो व्यक्ति विरोध की तरह पास नहीं आते, सहयोग की तरह पास आते हैं, जब दो व्यक्ति एक-दूसरे के साथ बिलकुल लीन होने को पास आते हैं, तब प्रेम का अवतरण हो जाता है। वे भूमि बन जाते हैं, प्रेम अवतरित हो जाता है।
जीवन में बुराई और भलाई है, पाप और पुण्य है, अंधेरा और प्रकाश है, मृत्यु और जीवन है। इन दोनों के बीच जब कोई संबंध खोज लेता है, संगीत, तब संतत्व का जन्म होता है। संतत्व की व्याख्या नहीं हो सकती। साधु की व्याख्या हो सकती है, असाधु की व्याख्या हो सकती है। साधु का तुम सम्मान करोगे, असाधु की निंदा करोगे। संत को तुम पहचान भी न पाओगे। वह अव्याख्य है। और संत के विपरीत तुम्हारे असाधु भी होंगे और तुम्हारे साधु भी होंगे। क्योंकि न तो असाधु उसे आत्मसात कर पाएंगे, क्योंकि साधु उसके भीतर छिपा है; न साधु उसे आत्मसात कर पाएंगे, क्योंकि असाधु को भी उसने आत्मलीन कर लिया है। . इसलिए जब बुद्ध पैदा होते हैं, या क्राइस्ट पैदा होते हैं, तो तुम हैरान होओगे कि बुरे आदमी तो उनके विपरीत थे ही, भले आदमी भी उनके विपरीत थे। वह बड़ा चमत्कार मालूम पड़ता है। लेकिन कुछ चमत्कार नहीं, बात सीधी-साफ है। गणित साफ-सुथरा है। जीसस को बुरे आदमियों ने सूली नहीं दी; भले आदमियों ने सूली दी। बुरे आदमी तो विपरीत थे ही। उन्होंने फिक्र ही न की, कि यह आदमी का कुछ खास मतलब ही नहीं है। लेकिन भले आदमियों ने सूली दी। वे बरदाश्त न कर सके। क्योंकि जीसस एक संगीत हैं, जो भले और बुरे के पार उठ गया; जहां बुराई ने अपनी बुराई खो दी, भलाई ने अपनी भलाई खो दी; जहां दोनों एक हो गए, और एक अनूठी घटना, जिसकी व्याख्या करनी मश्किल है।
- 'क्योंकि वे इन्हें नहीं जानते-मेरे एक सिद्धांत को और मनुष्यों के जीवन की विपरीत के बीच संगीत की व्यवस्था को-वे मुझे भी नहीं जानते हैं।'
क्योंकि जो जीवन को ही नहीं जानते, वे लाओत्से को कैसे जान पाएंगे? लाओत्से यानी जीवन का शुद्धतम रूप, लाओत्से यानी जिंदगी का सारभूत रूप, जरा भी जिसे गढ़ा नहीं गया, अनगढ़ पत्थर; जिस पर जरा भी सामाजिक शिष्टाचार, सभ्यता, संस्कृति की छाप नहीं डाली गई; अनगढ़ पत्थर, किसी पहाड़ी नदी में लुड़कता राज हो, किसी आदमी के हाथ ने जिसे छुआ नहीं; जिस पर मनुष्य की कोई छाप नहीं है। हां, प्रकृति की काई कितनी ही
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