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संत को पहचानना मठा कठिन
भयंकर होती है। तुम्हारे साधु-संन्यासी तुम्हें जीने न देंगे। क्योंकि वे मर रहे हैं। उन्होंने अपने को काट डाला है। उन्होंने अपनी जड़ें तोड़ ली हैं। वे चाहेंगे कि तुम भी अपनी जड़ें तोड़ लो। उनकी ईर्ष्या भयंकर है। और उनकी ईर्ष्या धर्म के आवरण में छिपी है, इसलिए तुम पहचान भी न सकोगे। उनकी ईर्ष्या निंदा बन गई है। उनकी ईर्ष्या ने तुम्हारे लिए नरकों का इंतजाम किया है।
. जो व्यक्ति भी जी नहीं पा रहा है ठीक से वह दूसरे को भी जीने नहीं देगा। तुम मुस्कुराओगे तो उसे पीड़ा होगी। वह तुम्हारी मुस्कुराहट पर भी जहर डाल देगा और कहेगा कि यह पाप है। तुम नाचोगे तो उसे पीड़ा होगी, क्योंकि वह लंगड़ा है। उसके हाथ-पैर उसने खुद ही काट डाले हैं। वह तुम्हारे उत्सव को मिटा डालना चाहेगा। वह सारे जगत को उदासी और मरघट से भर देना चाहेगा।
लेकिन जिस व्यक्ति ने जीवन को बेशर्त जीया है वह दूसरों को भी मुक्त करेगा। और उसे ही मैं सदगुरु कहता हूं जिसने जीवन को जीया है; और जो तुम्हारे प्रति ईर्ष्या से नहीं भरा है, क्योंकि भरने का कोई कारण ही नहीं है। जो तुम्हारे प्रति करुणा से भरा है। जिसने जीवन को जीया है वह तुम्हें भी जीवन को जीने में सहारा देगा। वह तुम्हें काटेगा नहीं, जोड़ेगा। वह तुम्हारी पंगुता को मिटाएगा, तुम्हारे पक्षाघात को पिघलाएगा। वह तुम्हें फिर से जीवन देना चाहेगा। जिसने महाजीवन को जाना है वही केवल तुम्हें जीवन देने को उत्सुक हो सकता है।
लेकिन जो खुद अपने को मार रहे हैं, आत्मघाती हैं, वे तुम्हें भी मार डालना चाहेंगे। और उनका जाल बड़ा है, और उनका जाल बड़ा पुराना है। और उनके जाल के बाहर आना बड़ा ही मुश्किल है।
इसलिए लाओत्से कहता है, उपदेश सुनने में मेरे आसान, साधने में भी। लेकिन तुम सुन न सकोगे; समझ भी न सकोगे; साध भी न सकोगे। क्योंकि चारों तरफ जो जाल है वह उसके विपरीत है; जीवन के विरोध में खड़ा है सारा जाल। इसलिए तुम्हें अपने जीवन की हिम्मत खुद ही जुटानी पड़ेगी। साहस, पहले कदम पर बड़े साहस की जरूरत है कि जो होगा होगा। और जो जीवन जाना ही है वह ठीक है। निंदा होगी, होगी। तुम निंदा को सह लेना, लेकिन जीवन को मत काटना। सारी दुनिया तुम्हें पापी कहे तो तुम सुन लेना, लेकिन तुम जीवन को काटने
का पाप मत करना। तुम एक दिन परमात्मा तक पहुंच जाओगे। जीवन को जिसने काटा वह परमात्मा तक कभी भी · नहीं पहुंच सकता है।
'मेरे शब्दों में एक सिद्धांत है।'
वह सिद्धांत है बेशर्त जीवन का स्वीकार। कोई छोटी-छोटी बात मत लगाना कि लोग क्या कहेंगे। तुम लोगों के कहने के लिए यहां नहीं हो। और तुम कुछ भी करो, लोग कभी तुम्हारे संबंध में भला कहते हैं क्या?
बड़ी पुरानी कथा है कि शिव पार्वती को लेकर एक पूर्णिमा की रात घूमने निकले हैं। और शिव तो जीवन के प्रतीक हैं; जीवन का महाभोग, बेशर्त भोग, उसके ही प्रतीक हैं। दोनों चल रहे हैं। साथ में नंदी चल रहा है। कुछ लोग मिले राह पर। उन्होंने कहा, ये मूर्ख देखो दोनों! जब नंदी साथ है तो पैदल क्यों चल रहे हैं?
अब उनका कुछ लेना-देना नहीं, न नंदी से, न शिव से, न पार्वती से। लेकिन लोग कुछ तो कहेंगे। लोग बिना निर्णय लिए नहीं रह सकते।
तो शिव ने कहा, ठीक। तो शिव नंदी पर बैठ गए। पार्वती चलने लगी। फिर कुछ लोग मिले। उन्होंने कहा, यह देखो मूरख आदमी! खुद चढ़ा है नंदी पर और पत्नी को पैदल चला रहा है। हद हो गई असभ्यता की। तो शिव नीचे उतर आए; पार्वती को नंदी पर चढ़ा दिया। फिर कुछ लोग मिले। उन्होंने कहा, यह देखो औरत निर्लज्ज! पति पैदल चल रहा है, पत्नी नंदी पर चढ़ी है। ऐसा न कभी सुना न देखा। तो शिव ने कहा, अब क्या करें? दोनों नंदी पर चढ़ गए। फिर कुछ लोग मिले। उन्होंने कहा, हद हो गई। नंदी की जान ले लोगे? दो-दो चढ़े हैं। नंदी का भी तो कुछ
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