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मुझसे भी सावधान रहना
बहुत चोट करनी पड़ेगी तभी यह अंधेरा टूटेगा; क्योंकि अंधेरा कितने दिनों से तुमने सम्हाल रखा है। पत्थर की तरह जड़ हो गई है तुम्हारी अवस्था। पर्त बहुत मजबूत हो गई है। आत्मा भीतर छिपी है, झरना भीतर है, लेकिन द्वार बंद हो गए हैं। चोट करने से द्वार टूटेंगे। सतत चोट करने से द्वार टूटेंगे। धीमी ही चोट क्यों न हो, सतत चाहिए। पानी गिरता है, धीमी-धीमी चोट करता है, चट्टानें टूट जाती हैं। तो तुम्हारी स्मृति की जलधार गिरती रहे तुम्हारे यंत्रवत चट्टानों पर, आज नहीं कल चट्टानें टूट जाएंगी। आज लगेगा कि जलधार इतनी कोमल है, इतनी सख्त चट्टानों को कैसे तोड़ेगी? लेकिन सतत जलधार भी अगर सतत बनी रहे तो बड़े से बड़े पहाड़ टूट जाते हैं। पत्थर कमजोर है, सातत्य के सामने कमजोर है।
लेकिन तुम्हारी तकलीफ मैं समझता हूं। एक दिन प्रयास करते हो, दस दिन आराम करते हो। फिर एकाध दिन जोश चढ़ जाता है, फिर एकाध दिन प्रयास कर लेते हो, फिर दस दिन आराम कर लेते हो। ऐसे बनाते हो, मिटा देते हो। स्थिति वही की वही बनी रहती है। हर बार बनाते हो, हर बार मिटा देते हो। पानी सींच देते हो एक दिन, दस दिन फिक्र नहीं करते। तब तक वृक्ष कुम्हला जाता है, सूख जाता है। फिर बीज बोते हो, फिर थोड़ी साज-सम्हाल करते हो, फिर भूल जाते हो।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि बड़ा आनंद आ रहा था ध्यान में, लेकिन फिर टूट गया।
मैं समझ ही नहीं पाता कि जब आनंद आ रहा था तो फिर क्यों टूट गया? और वे ठीक कह रहे हैं कि आनंद आ रहा था। लेकिन आनंद के लिए भी तुम्हारी चेष्टा सतत नहीं रह पाती। मन हजार बातें सुझा देता है। मन कहता है, आज सुबह सो जाओ, कल कर लेना। - मन बहुत कुशल है कल का आश्वासन देने में। और कल कभी आता नहीं। जो आता है वह आज है। करना हो तो आज कर लेना। न करना हो तो कल पर टाल देना। और क्या पा लोगे? अगर एक घड़ी बिस्तर में आज और पड़े रहे तो कितना मिल जाएगा? बिस्तर में कितने दिन तो पड़े रहे हो। जिंदगी ऐसे ही तो बिताई हैं बहुत सी। साठ साल जीओगे तो बीस साल तो बिस्तर में ही पड़े रहोगे। और एक घड़ी ज्यादा पड़े रहने से क्या मिल जाएगा? उठ आओ! मत सुनो मन की!
और मन तभी तुमसे कहना शुरू करता है जब देखता है, अब खतरा है। एक सीमा तक मन बिलकुल फिक्र नहीं लेता। तुम करते रहो ध्यान; मन को कोई चिंता नहीं है। लेकिन जहां मन देखता है कि अब चोट इतनी पड़ रही है कि टूटने की संभावना है, वहीं मन पच्चीस उपाय खोज देता है। तुम पच्चीस तरकीबें निकाल लेते हो कि आज तबीयत ठीक नहीं है, कि शरीर स्वस्थ नहीं है।
यह शरीर जाएगा; स्वस्थ रहे, अस्वस्थ रहे; चिता पर चढ़ेगा। इसे तुम हमेशा चिता पर चढ़ा हुआ समझो। ध्यान ही बचेगा। तो शरीर न हो ठीक तो भी ध्यान को मत छोड़ो; क्योंकि हो सकता है मन सिर्फ तरकीब निकाल रहा हो कि शरीर ठीक नहीं है।।
और मन की तरकीबों का अंत नहीं है। ऐसे तुम दिन भर रहे आते हो, न चींटी काटती है, न हाथ-पैर में खुजलाहट उठती है, न खांसी आती है; ध्यान करने बैठे, सब शुरू।
यह बहुत हैरानी की बात है कि चौबीस घंटे यह आदमी ठीक था; ध्यान करने बैठता है, लगता है चींटियां चढ़ रही हैं, पैर में खुजलाहट आ रही है, अब यह गर्दन दुखने लगी, अब यहां यह होने लगा, वहां वह होने लगा। और तुम्हें पता है कि तुमने कई बार आंख खोल कर भी देखा है, वहां चींटी नहीं है। पैर पर कोई चढ़ ही नहीं रहा है। मन धोखे दे रहा है। मन कह रहा है कि हिलो, क्योंकि तुम्हारे हिलने में मन का जीवन है, और तुम्हारे थिर हो जाने में मन की मृत्यु है। तो मन अपने को बचा रहा है।
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