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मुझसे भी सावधान रहना
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लेकिन नकल आसान है, मुफ्त मिल जाती है। क्या लगता है नकल में? बड़ी आसान है । और सस्ते को पकड़ने का मन होता है। मंहगे में तो मूल्य चुकाना पड़ेगा। अगर तुम्हें मेरे जैसा होना है, तुम थोड़े दिन में ही कुशल हो जाओगे। तुम्हें अगर अपने जैसा होना है तो तुम्हें अज्ञात की यात्रा करनी पड़ेगी। मैं तो यहां मौजूद हूं। तो तुम मुझे देख सकते हो; उठना, बैठना, बोलना, सब सीख सकते हो। लेकिन तुम तो अभी मौजूद नहीं हो। तुम तो कभी मौजूद होओगे। अभी तुम बीज में छिपे पड़े हो। तो अभी तुम्हें पता ही नहीं है कि तुम कौन हो, क्या हो, क्या होने की संभावना है। तो अज्ञात की यात्रा है। नक्शा साफ नहीं है। नक्शा है ही नहीं। रास्ते कहां हैं, कुछ पता नहीं है। एक-एक कदम चलना होगा और रास्ता बनाना होगा। धीरे-धीरे - धीरे-धीरे बनेगी मंजिल; प्रकट होओगे तुम । और तब तुम मुझे धन्यवाद दे सकोगे। अगर तुम तुम ही हुए तो तुम मुझे धन्यवाद दे पाओगे, अगर तुमने नकल की तो तुम मुझे कभी क्षमा न कर सकोगे।
दूसरा प्रश्न : जीवन की गति वर्तुलाकार हैं, इस नियम से दिन और रात तथा माह और ऋतु की तरह क्या हम भी अपने को बार-बार मात्र दोहराते रहते हैं?
साधारणतः हां। जब तक तुम मूच्छित हो तब तक तुम प्रकृति के हिस्से हो, तब तक तुम ऋतु, वर्ष, माह, दिन और रात की तरह ही वर्तुलाकार भटकते रहते हो, वही - वही दोहरता रहता है बार-बार । इसीलिए तो हिंदुओं ने इसे जीवन का वर्तुल कहा है - संसार । संसार का अर्थ है चाक । बैलगाड़ी के चाक की तरह घूमते रहते हो। कुछ नया नहीं होता। बहुत बार जन्मे, बहुत बार वही वासना, वही लोभ, वही तृष्णा, वही क्रोध । बहुत बार बूढ़े हुए, बहुत बार मरे । वही भय । फिर जन्मे। यह बिलकुल चाक की तरह घूम रहा है— बचपन, जवानी, बुढ़ापा, जन्म, मृत्यु, फिर जन्म, फिर मृत्यु – इसमें कुछ भी नया नहीं हो रहा है।
लेकिन नया हो सकता है, अगर तुम जाग जाओ। क्योंकि जागते ही तुम प्रकृति के हिस्से नहीं रह जाते, परमात्मा के हिस्से हो जाते हो । प्रकृति यानी सोया हुआ परमात्मा । परमात्मा यानी जागी हुई प्रकृति । बस इतना ही फर्क है। जैसे एक सोया हुआ आदमी और एक जागा हुआ आदमी। सोया हुआ आदमी भी जाग सकता है; जागा हुआ आदमी भी सो सकता है। कोई बुनियादी फर्क नहीं है।
लेकिन फर्क बड़ा है। घर में आग लगी हो तो सोया आदमी पड़ा रहेगा, जागा हुआ आदमी बाहर निकल जाएगा। घर में संगीत बज रहा हो तो सोया आदमी सोया रहेगा, उसे पता ही न चलेगा कि अमृत की वर्षा हो रही थी; जागा हुआ आदमी सरोबोर हो जाएगा। सूरज निकले, सोया हुआ आदमी सोया ही रहेगा, जैसे अभी रात ही है; जागा हुआ आदमी पक्षियों के कलरव को सुनेगा, सूरज की उठती प्रतिमा को देखेगा। वह सुबह का मनमोहक रूप सोए को पता ही न चलेगा; जागा ही पी सकेगा उस सौंदर्य को ।
प्रकृति है अभी तुम्हारे भीतर । उसका अर्थ है, तुम अभी सोए हुए हो। तो अभी पुनरुक्ति होगी । प्रकृति पुनरुक्ति करती है। प्रकृति रिपीटीशन है। पत्ते गिर जाते हैं, फिर लौट आते हैं। सब वही का वही होता रहता है। प्रकृति में तुम कोई फर्क देखते हो ? सब वही का वही होता रहता है। फिर सूरज निकलता है; फिर सांझ होती है।
लेकिन तुम्हारे भीतर संभावना है कि तुम जाग जाओ, तो तत्क्षण तुम इस चके के बाहर हो जाते हो। उसी को हम आवागमन के बाहर होना कहते हैं । तुम होश से भर जाओ, तत्क्षण चीजें बदल जाती हैं। फिर कल तक तुमने जो क्रोध किया था, तुम दोबारा आज न कर सकोगे। जागा हुआ आदमी कैसे क्रोध करेगा ? यह तो ऐसे ही है जैसे जागा हुआ आदमी अपना हाथ आग में डाले। जागा हुआ आदमी क्यों अपना हाथ आग में डालेगा?