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________________ आक्रामक नहीं, आक्रांत होना श्रेयस्कर हैं 121 मैंने सुना है कि एक राजनीतिज्ञ को एक जंगल में एक आदिवासी कौम ने पकड़ लिया। वह आदिवासी कौम नरभक्षी है। आदिवासी कौम का जो प्रधान था वह कभी-कभी राजधानी भी गया था उत्सवों में। गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस, उसको निमंत्रण मिलते थे। वह अकेला आदमी था जो राजधानी होकर आया था। सारा कबीला तो उत्सुक था कि जल्दी से जल्दी इस राजनीतिज्ञ का भुरता बनाया जाए और खा लिया जाए। वे भूखे थे। बहुत दिन से आदमी नहीं मिला था। लेकिन वह कबीले का जो प्रमुख था वह उसकी बड़ी प्रशंसा और स्तुति कर रहा था कि तुम महान से महान नेता हो, तुम जैसा बुद्धिमान नेता संसार में कहीं भी नहीं है। असली में तुम्हीं को प्रधानमंत्री होना चाहिए। लेकिन लोग नासमझ हैं और तुमको अभी तक नहीं पहचान पाए । हो आखिर लोग परेशान हो गए। एक ने आकर कान में कहा कि क्या बकवास लगा रखी है! हम भूखे हैं, इसका भुरता बनाएं। उसने कहा, तुम ठहरो । यह राजनीतिज्ञ है। पहले इसे फुला देने दो तो जरा यह ज्यादा बड़ा जाएगा, तो सब का पेट भर सकेगा। जरा बड़ा इसे कर लेने दो । अहंकार को फुलाए जाओ, वह बड़ा होता जाता है। वह रबड़ के फुग्गों जैसा है। और उसे पता नहीं कि जितना बड़ा होगा उतना ही फूटने के करीब आ रहा है। अहंकार अपने से ही टूटता है, किसी को तोड़ने की जरूरत नहीं। वह खुद आत्मघाती है। लाओत्से कहता है, शत्रु की शक्ति को कम आंकने से बड़ा अनर्थ नहीं है। उससे तुम्हारा जीवन का खजाना नष्ट हो सकता है। इसलिए जब दो समान बल की सेनाएं आमने-सामने होती हैं, तब वही जीतता है जो सदाशयी है, झुकता है, विनम्र है। विनम्रता में बड़ी सुरक्षा है; अहंकार में बड़ी असुरक्षा है। क्योंकि विनम्रता को तोड़ा नहीं जा सकता; अहंकार तो अपने आप ही टूट रहा है। तुम्हारे सहारे के बिना भी टूट जाएगा। तुम्हें तोड़ने की जरूरत भी नहीं है । अहंकार तो अपने आप ही जहर है। विनम्रता अमृत है। N यह बाहर के शत्रुओं के संबंध में तो सच है ही, भीतर के शत्रुओं के संबंध में भी सच है। तुम क्रोध को छोटा करके मत मानना, नहीं तो मुश्किल में पड़ोगे। बहुत लोगों ने माना और मुश्किल में पड़े हैं। तुम कामवासना को छोटा करके मत मानना । जिन्होंने माना वे झंझट में पड़ गए हैं। कामवासना बड़ी ऊर्जा है। सारी प्रकृति का खेल उसमें छिपा है। सारी प्रकृति की जीवन-धारा है काम-ऊर्जा, छोटा करके मत मानना । छोटा करके मानने वाले सब तरफ हैं। वे तुम्हें जगह-जगह मिल जाएंगे। एक संन्यासी मेरे पास आए। वे कुछ दिन मेरे पास रुके। मैंने उनको कहा कि तुम और सब तो ठीक है, मगर ये लकड़ी की खड़ाऊं घर में मत पहनो । दिन भर खटर पटर ! तुम जहां जाते हो यह तो बड़ा उपद्रव है। उन्होंने कहा, यह तो पहननी ही पड़ेगी; क्योंकि नहीं तो ब्रह्मचर्य खंडित हो जाएगा। मैंने कहा, क्या पागलपन की बात है! लकड़ी की खड़ाऊं से ब्रह्मचर्य का क्या लेना-देना? उन्होंने कहा, आपको पता होना चाहिए, मेरे गुरु ने बताया है, और ऐसी पुरानी धारणा है भारत में कि दोनों अंगुलियों के बीच में, अंगूठे और अंगुली के बीच में जब लकड़ी की खड़ाऊं पकड़ी जाती है, तो वहां कोई नस है, उस नस पर दबाव पड़ने से आदमी ब्रह्मचारी रहता है। कितना छोटा करके मान रहे हो तुम ब्रह्मचर्य को और कामवासना को ! तो मैंने उनसे कहा, तुझे ब्रह्मचर्य उपलब्ध हुआ? उसने कहा, अभी हुआ तो नहीं इसीलिए तो खड़ाऊं छोड़ भी नहीं सकता। यह तर्क होता है भीतर। अभी हुआ नहीं। कितने दिन से खड़ाऊं पहनते हो? उसने कहा, कोई आठ साल हो गए। तो आठ साल में भी ब्रह्मचर्य उपलब्ध नहीं हुआ। थक गया तेरा अंगूठा भी, नस भी अब तक जड़ हो चुकी होगी। और अगर नसबंदी ही करवानी है तो अस्पताल में जाकर करवा लो। खड़ाऊं का झंझट काहे के लिए लेकर चलना ?
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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