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________________ ताओ उपनिषद भाग ६ महावीर ने तो कहा है, अनंत वीर्य। ऐसा व्यक्ति अनंत ऊर्जा से भर जाता है। इतनी ऊर्जा हो तुम्हारे पंखों में तो ही परमात्मा की तरफ उड़ पाओगे। तो न तो तुम्हारा त्यागी उड़ पाता है, क्योंकि वह लड़ने से ही मरा जा रहा है; न तुम्हारा भोगी उड़ पाता है, क्योंकि वह भोग में टूटा जा रहा है। दोनों से अलग है यात्रा। भोग में योग को साध लो। मेरी संन्यास की वही परिभाषा है कि तुम जहां हो वहीं अपनी ऊर्जा को आत्मसात करने लगो, व्यर्थ मत गंवाओ। न लड़ने की कोई जरूरत है, न फेंकने की कोई जरूरत है। लीन कर लेना है। तो जब क्रोध आए तब तुम लड़ने आगे मत बढ़ो, तुम पीछे हट जाओ। जब क्रोध की बिजली चमके तब तुम कोई संघर्ष खड़ा मत करो, तुम शांत बैठ जाओ। चमकने दो बिजली, वह तुम्हारी ही ऊर्जा है। और जल्दी ही तुम पाओगे-जैसा मैंने कहा, कमजोर क्रोध करता है; शक्तिशाली करुणा करता है, वह भी तुमसे कह देना चाहिए-जब शक्ति बहुत होती है तब क्रोध तो होता ही नहीं, करुणा ही होती है। वह बहुत शक्ति का लक्षण है। क्रोध तो कम शक्ति का लक्षण है। क्रोध तो दिवालिया शक्ति का लक्षण है। करुणा महान शक्ति का लक्षण है। गहन होती है शक्ति, तब तुमसे करुणा ही पैदा हो सकती है। और क्रोध और करुणा की शक्ति एक ही है, मान का ही भेद है। कामवासना छोटी शक्ति का लक्षण है; प्रेम । महान शक्ति का लक्षण है। जब शक्ति विराट होती है तो प्रेम बन जाती है; जब शक्ति क्षुद्र होती है, बूंद-बूंद चूती है, तब कामवासना बन जाती है। शक्तियां वही हैं। जब शक्ति कम होती है तब अहंकार बन जाती है; जब विराट होती है तो परमात्मा बन जाती है। जब तुम छोटे-छोटे होते हो, थोड़े-थोड़े होते हो, तो तुम्हारी सीमा होती है; जब तुम ओवरफ्लो होते हो, बहने लगते हो चारों तरफ कूल-किनारे तोड़ कर, तब तुम विराट हो जाते हो। आत्मसात करो शक्ति को; छिद्रों से बाहर मत जाने दो। और लड़ो भी मत। कितनी देर टिकेगा क्रोध, यह कभी तुमने खयाल किया? कितनी देर टिकेगा दुख? कितनी देर टिकेगा तुम्हारा सुख? सभी क्षणभंगुर हैं। तुम जरा रुको तो। वे अपने आप आते हैं और चले जाते हैं। तुम नाहक बीच में खड़े हो जाते हो। तुम अपने को हटा लो। सुबह होती है, सांझ होती है; ऐसे ही दुख आते हैं, सुख आते हैं। वर्षा होती है, ग्रीष्म होता है; ऐसे ही क्रोध आता है, दया आती है। वसंत है और पतझड़ है; ऐसे ही तुम्हारे मन के मौसम हैं। तुम जल्दी मत करो। सब अपने से आता है, चला जाता है। तुम्हारी कोई जरूरत ही नहीं है बीच में आने की। तुम थोड़े दूर खड़े होना सीख लो। जरा सा फासला, और बड़ी क्रांति हो जाती है। तो भीतर के लिए भी यही रणनीति है। ___ 'शत्रु की शक्ति को कम कर आंकने से बड़ा अनर्थ नहीं है। शत्रु की शक्ति का अवमूल्यन मेरे खजाने को नष्ट कर सकता है। इसलिए जब दो समान बल की सेनाएं आमने-सामने होती हैं तब जो सदाशयी है, झुकता है, वही जीतता है, वही जयी होता है।' बाहर के युद्ध के लिए भी शत्रु की शक्ति को कभी कम मत मानना। अन्यथा वही तुम्हारी हार बनेगी। शत्रु की शक्ति को अपने से ज्यादा ही मानना, तो ही तुम तत्पर रह सकोगे, तो ही तुम सजग रहोगे। जिसने शत्रु की शक्ति को कम मान लिया, वह हारने के रास्ते पर जा चुका। लेकिन अहंकार हमेशा उलटा करता है। अहंकार अपनी शक्ति को बहुत मानता है। दूसरे की शक्ति को हमेशा कम करके मानता है। अहंकार खुद को तो फुला कर रखता है। दूसरे को सिकुड़ा कर देखता है। इसलिए अहंकार जगह-जगह पराजित होता है और दुख पाता है। विनम्रता सदा दूसरे को बड़ा मानती है। अपने को सदा छोटा मानती है। इसलिए अगर विनम्र आदमी से कभी कोई अहंकारी आदमी जूझ जाए तो अहंकारी हारेगा ही। उसके हारने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। इसलिए नहीं कि विनम्र उसे हराता है, बल्कि उसका अहंकार ही उसे हरा देता है। | 120|
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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