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आक्रामक बही, आक्रांत ठोना श्रेयस्कर है
ऐसा हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन अपने बुढ़ापे में गांव का काजी बना दिया गया, गांव का न्यायाधीश हो गया। पहला ही मुकदमा आया। और मुकदमा बड़ा उलझन से भरा था। एक पति और पत्नी में झगड़ा हुआ था। और वे अदालत में काजी के पास आ गए थे। पति के कान से खून बह रहा था और वह कह रहा था कि पत्नी ने उसका कान काट लिया। और पत्नी इनकार कर रही थी। तो नसरुद्दीन ने कहा कि इस पर फिर विचार करना पड़ेगा, यह तो बड़ी जटिल बात है। पत्नी इनकार करती है। और कोई गवाह नहीं है। क्योंकि घर में वे दोनों अकेले थे, रात में झगड़ा हुआ। पत्नी कहती है, मैंने काटा नहीं। इन्होंने खुद ही अपना कान काट लिया, पत्नी कह रही थी। सारी अदालत राजी हो गई कि कोई अपना कान कभी काट सकता है! लेकिन नसरुद्दीन इतनी आसानी से राजी नहीं हो सकता। उसने कहा कि एक घंटे का मुझे समय चाहिए।
दरवाजा बंद करके बगल के कमरे में गया। सब तरह उछला-कूदा अपने कान को काटने के लिए। कई दफे सिर टकरा गया दीवार से, कभी जमीन पर गिरा, सब छिल गया, लहूलुहान हो गया, लेकिन कान न काट पाया। थका-मांदा चारों खाने चित्त पड़ा सोचने लगा कि क्या मामला क्या है! तो उसे याद आया कि यह काम बड़ी कुशलता का मालूम पड़ता है, इसके लिए अभ्यास की जरूरत है। कई दफे कान के बिलकुल करीब भी पहुंच गया था, मगर चूक गया। यह मालूम होता है कि कोई योग का अभ्यास है; यह इतनी जल्दी हल नहीं हो सकता। लेकिन एक बात हाथ आ गई; सूत्र पकड़ में आ गया।
वह बाहर आया। उसे देख कर उसकी अदालत भी हैरान हुई—कि सब कपड़े फट गए, लहूलुहान! पूछा कि क्या हुआ? उसने कहा कि मैंने पहले कोशिश की कि यह आदमी झूठ बोल रहा है या सच? या पत्नी झूठ बोल रही है या सच? अब एक काम किया जाए कि इस आदमी के शरीर को जांचा जाए। अगर इसको जगह-जगह चोट लगी हो तो इसी ने काटा है। क्योंकि मेरी हालत देख रहे हो! काटने की कोशिश में यह हालत हो गई। तो पत्नी ने नहीं काटा है। लेकिन देखा गया आदमी, उसको कहीं चोट नहीं थी। तो नसरुद्दीन ने कहा, इससे जाहिर होता है कि यह आदमी बड़ा कुशल है। यह बड़ा अभ्यासी, हठयोगी मालूम होता है। यह सालों के अभ्यास से ऐसी कला और सिद्धि आती है आदमी को। अपना ही कान काटना कोई आसान मामला नहीं है।
और सब हठयोगी यही कर रहे हैं-अपना ही कान काटने की कोशिश कर रहे हैं। तुम उछलो-कूदो कितने ही, उलटे-सीधे कितने ही खड़े होओ, अपना कान न काट पाओगे। अपने को तुम काट ही न पाओगे। क्योंकि वहां तुम ही हो, दूसरा नहीं है। लड़ो काम से, क्रोध से, तुम कभी जीत न पाओगे। और तुम सदा पाओगे कि काम और क्रोध तुम्हारे मन पर सवार हैं। जिससे तुम लड़ें वह तुम्हारा पीछा करेगा।
लाओत्से कहता है, आत्मसात कर लो।
तो अगर भोग और त्याग में चुनना हो तो मैं भोग के पक्ष में। लेकिन अगर भोग और योग में चुनना हो तो मैं योग के पक्ष में। क्योंकि योग अतिक्रमण है, ट्रांसेंडेंस है। वह भोग के अनुभव से ऊपर जाना है।
अब तुम एक प्रयास करके देखो: जब क्रोध उठे, द्वार बंद कर लो, शांत बैठ जाओ, उठने दो क्रोध को। तुम न तो क्रोध किसी पर प्रकट करो, और न तुम क्रोध के विपरीत लड़ो और उसे दबाओ। तुम उठने दो क्रोध को, उसे पूरी छूट दे दो कि तुझे जो होना है हो। मन में बड़े विचार उठेंगे, बड़ी तरंगें आएंगी, किसी की हत्या कर देनी है। उठने दो तरंगें, कोई चिंता नहीं, तुम दूर खड़े देखते रहो, जैसे सिर्फ एक दर्शक हो। कितनी देर यह टिकेगा? थोड़ी ही देर में तुम पाओगे लहरें जा चुकीं, सब शांत हो गया। ऊर्जा वापस अपने स्रोत में गिर गई।
ऐसे ही कामवासना की ऊर्जा भी वापस अपने स्रोत में गिर जाती है। और जो इस कला में निष्णात हो जाता है उसके पास इतनी ऊर्जा होती है कि जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है।
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