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ताओ उपनिषद भाग ६
मिला दिया। लेकिन बच्चे की कला क्या है? वह सिर्फ गिरता है, चोट नहीं खाता। जैसे-जैसे बड़ा होने लगता है वैसे-वैसे चोट लगनी शुरू होने लगती है। जैसे-जैसे अहंकार निर्मित होता है वैसे-वैसे बचाव शुरू हो जाता है।
तुमने बचाया कि तुम मुश्किल में पड़ोगे। लाओत्से कहता है, बचाओ मत। और इसको वह कहता है बिना हथियार के हथियारबंद रहना। सारे संसार को तुम स्वीकार कर लो।
__ और अब गहरी बात! यह तो बाहर की बात है। इसका एक गहरा पहलू है। और वह पहलू है : भीतर के शत्रुओं के साथ भी यही व्यवहार करना। कि लोभ है, क्रोध है, काम है; इनसे भी तुम लड़ना मत। अन्यथा तुम हार जाओगे। इनसे भी तुम द्वंद्व में मत पड़ जाना; अन्यथा तुम मिट जाओगे। क्रोध के साथ भी तुम पीछे हट जाना। क्रोध को कहना कि ठीक है आ जा। क्रोध तुम्हारी छाती पर बैठे, बैठ जाने देना, तुम चारों खाने लेट जाना, कि बैठ! क्रोध से लड़ना मत। अगर तुम क्रोध से लड़े तो क्रोध जीतेगा, तुम हारोगे। तुम लाख कसमें खाओ, पश्चात्ताप करो; कोई फर्क न पड़ेगा। क्योंकि क्रोध तुम्हारी ही ऊर्जा है, उससे लड़ने का मतलब है तुम अपने को दो खंडों में बांट रहे हो। तुम्हीं लड़ोगे क्रोध की तरफ से; और तुम्हीं लड़ोगे क्रोध के विरोध की तरफ से।
यह तो पागलपन है। यह तो ऐसा हुआ कि वृक्ष को पानी भी सींच रहे हैं, शाखाओं को भी काटे जा रहे हैं। . पानी भी दिए जाते हैं; शाखाएं भी काटते हैं। तुम ही हो दोनों तरफ। जैसे बाएं-दाएं हाथ को तुम लड़ाओगे तो कौन जीतेगा? हां, तुम चाहो धोखा अपने को देना तो दाएं को बाएं के ऊपर कर लो और सोच लो कि जीत गए। लेकिन तुम किसी और को धोखा नहीं दे रहे, अपने को धोखा दे रहे हो। एक क्षण में चाहो तो बाएं को फिर दाएं के ऊपर कर लो। वही तुम कर रहे हो। जिंदगी-जिंदगियों से क्रोध से लड़ते हो। कौन है वहां लड़ने को जिससे तुम लड़ रहे हो? तुम्हारी ही ऊर्जा।
तुम लड़ो मत। तुम ऊर्जा को वापस पी जाओ। क्रोध का अर्थ है: ऊर्जा दूसरे की तरफ जानी शरू हई है-विनाश के लिए। तुम शांत हो जाओ। तुम क्रोध को कहो कि हमारी कोई लड़ाई ही नहीं है। तू हो, तू रह। उठने दो धुआं क्रोध का तुम्हारे चारों तरफ; घिरने दो धुएं को। तुम कुछ मत करो। तुम शांत भीतर बैठे रहो। तुम लड़ो ही मत। तुम अचानक पाओगे, क्रोध धीरे-धीरे आत्मसात हो गया, खुद में फिर वापस डूब गया। वह तुम्हारी ही लहर थी; जैसे सागर में लहर उठती ऐसे फिर वापस सो गई। और जब तुम एक दिन इस कला को सीख लोगे कि क्रोध तुममें ही वापस सो जाता है तो तुम पाओगे कि कितनी ऊर्जा तुम्हारे पास है। अनंत ऊर्जा के तुम धनी हो जाते हो।
कामवासना उठती है; देखते रहो। लड़ो मत। न भोगने जाओ, न लड़ने जाओ। क्योंकि भोगोगे तो भी खोओगे। लड़ोगे तो भी खोओगे। अगर लड़ने और भोगने में ही चुनना हो तो भोगना बेहतर; क्योंकि ऊर्जा तो दोनों कारण खो जाएगी। अगर लड़ने और भोगने में चुनना हो तो भोगना बेहतर। कम से कम कुछ उपयोग तो हो जाएगा।
इसलिए मुझसे अगर तुम पूछो तो हिमालय में रहते संन्यासी से बाजार में रहते गृहस्थ का मेरा चुनाव है। वह बेहतर। क्योंकि कम से कम ऊर्जा का कुछ उपयोग तो हो रहा है। संन्यासी तो सिर्फ ऊर्जा से लड़ रहा है। और लड़ने वाला ज्यादा कठिनाई में पड़ेगा अंततः। क्योंकि लड़ने से कभी कोई समझ नहीं आती। भोग से तो ज्ञान आ भी जाए, त्याग से कभी ज्ञान नहीं आता।
__इसलिए तो परमात्मा भोगी पैदा करता है, त्यागी पैदा नहीं करता। त्यागी खुद बन जाते हैं। परमात्मा की समझ साफ है कि परमात्मा भोगी पैदा करता है, क्योंकि पता है कि भोग की ही समझ से एक दिन योग का जन्म होगा। भोग में से गुजर कर ही एक दिन समझ परिपक्व होगी, योग का फल पकेगा। इसलिए परमात्मा संसार बनाता है; संसार से गुजरना अपरिहार्य है। अगर तुमने लड़ना शुरू कर दिया, काम की ऊर्जा से लड़े तो तुम अपने से ही लड़ रहे हो, तुम धीरे-धीरे विक्षिप्त हो जाओगे।
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