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________________ ताओ उपनिषद भाग ६ हिंद-केसरी में भी छिपा तो है ही रहस्य, केसरी जंगली जानवर ही है। जिनको तुमने पद्मभूषण और महावीर चक्र बांटे थे उनका तुम मानसिक इलाज करवाओगे, और जिनको तुम भारत-रत्न कहते थे उनको तुम भारत की मिट्टी कहना भी पसंद न करोगे। लेकिन मूल्यांकन की पूरी क्रांति घटित हो जाती है। लाओत्से विनम्रता की राह से चल रहा है। वह कह रहा है, हट जाओ, यह सौष्ठव है। राह दे दो। 'एक इंच आगे बढ़ने की बजाय एक फीट पीछे हटना श्रेयस्कर है।' क्यों? क्योंकि आगे जाने की यात्रा अहंकार की यात्रा है। उसमें बहुत लोग गए, किसी ने कुछ पाया नहीं। तुम हटते जाओ। तुम्हारा मन कहेगा, ऐसे हटने लगे तो सारी दुनिया हमें हटा ही डालेगी। कोई हर्जा नहीं है। कहां पहुंच जाओगे? सबसे आखिर में खड़ा कर देगी। लेकिन सबसे आखिर में होने में हर्ज क्या है? और जिन्होंने भी जाना है उन्होंने सबसे आखिर में खड़े होकर जाना है। क्योंकि वहां न संघर्ष है, न प्रतियोगिता है, न प्रतिस्पर्धा है। बुद्ध और महावीर अगर भिखारी हो जाते हैं राह के तो उसका कारण क्या है? क्या कुछ भिखारी होने में कोई सत्य के मिलने की ज्यादा सुविधा है? नहीं, वे असल में प्रतिस्पर्धा से हट रहे हैं। बड़ी कुलह थी, बड़ी प्रतिस्पर्धा थी। वे प्रतिस्पर्धा से हट रहे हैं, वे ना-कुछ होने को राजी हैं; लेकिन लड़ कर कुछ होने को राजी नहीं हैं। क्योंकि लड़ कर भी हुए तो क्या हुए। जबरदस्ती हुए तो क्या हुए! वे चुपचाप हट गए हैं। वे भगोड़े नहीं हैं, पलायनवादी नहीं हैं। उनके पास बड़ी गहरी दृष्टि है। उन्होंने देख लिया कि लड़ कर भी पाओगे क्या? बढ़ कर भी जाओगे कहां? क्योंकि जो बिलकुल आगे पहुंच गए हैं वे बड़े दुख में खड़े हैं। वे पीछे हट गए हैं। उन्होंने प्रतिस्पर्धा छोड़ दी है। वे गांव के भिखारी हो गए। जहां सम्राट थे वहां भिक्षा का पात्र ले लिया हाथ में। वे सिर्फ यह कह रहे हैं कि हम दौड़, उपद्रव, झगड़ा, प्रतिस्पर्धा, प्रतियोगिता से बाहर हैं। हम पर कृपा करो। हमने सब मैदान छोड़ दिया। कृष्ण का एक नाम मुझे बहुत प्रीतिकर है, वह है रणछोड़दास। उसका मतलब होता है, जो युद्ध से भाग खड़ा हुआ, जिसने रण छोड़ दिया। ऐसा कोई नाम दुनिया में किसी ने भी किसी अवतार को नहीं दिया है। रणछोड़दास जी. की प्रतिमाएं हैं, मंदिर हैं। और सारी रणनीति लाओत्से की रणछोड़दास जी की है। छोड़ दो झगड़ा; बाहर हट जाओ। जहां कलह पाओ वहां से चुपचाप हट जाओ। क्योंकि कलह तुम्हें मिटा देगी; चाहे तुम जीतो, चाहे तुम हारो। कलह तुम्हें हरा देगी; चाहे तुम जीतो, चाहे तुम हारो। जीते तो भी आखिर में पाओगे हार गए, हारे तब तो पाओगे ही कि हार गए। कलह जहां हो वहां से हट जाओ। क्योंकि कलह में होना जीवन की ऊर्जा का क्षरण है। कलह में होना जीवन की ऊर्जा पर जंग लगवाना है। तुम चुपचाप हट जाओ। जैसे धूप में खड़ा आदमी हट जाता है वृक्ष की छाया में, ऐसे ही प्रतियोगिता की धूप में खड़े हुए समझदार हट जाता है अप्रतियोगिता की छाया में। तब वहां परम विश्राम है। और उस परम विश्राम में ही तुम स्वयं को जान सकोगे। क्योंकि वहां अहंकार तो बच ही नहीं सकता।। अहंकार तो जीता है प्रतियोगिता से, महत्वाकांक्षा से। कलह भोजन है अहंकार के लिए, अकेले में नहीं जी सकता। अकेले में तो गिर जाता है। उसके पास पैर ही नहीं हैं अकेले में। वह तो दूसरे से लड़ने के सहारे चलता है। अहंकार तो ऐसा ही है जैसे कोई साइकिल चलाता है तो पैडल चलाता है। पैडल चलाता रहे तो साइकिल चलती है। पैडल चलाना रोक दे, थोड़ी-बहुत देर चल जाए, घाट हो तो थोड़ी और ज्यादा चल जाए, बाकी फिर अपने आप रुक जाती है। सम्हल नहीं सकती। अहंकार साइकिल जैसा है, तुम चलाते रहो। छोटे बच्चे से चलना शुरू हो जाता है, कि क्लास में प्रथम आना है, कि नंबर एक खड़े होना है। शुरू हो गई यात्रा। छोटे-छोटे बच्चे विक्षिप्त होने लगते हैं। परीक्षा में प्रथम खड़े होना है। रुग्ण मां-बाप हैं। अगर प्रथम न आया . 114
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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