________________
ताओ उपनिषद भाग ६
112
सकता है मिट गया, जो भी हार सकता है हार गया, जो भी खोया जा सकता है खो गया, तब तुम्हें पहली दफा उस परम धन का स्मरण आएगा जिसे न कोई छीन सकता, न कोई मिटा सकता। तुम पहली दफा इंद्रधनुष से हटे और आकाश की तरफ तुम्हारी दृष्टि मुड़ी।
ऐसा मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि कुछ लोग, जो मरने की आखिरी घड़ी में पहुंच गए थे और किसी कारण बचा लिए गए, उनके जो अनुभव हैं वे बड़े अनूठे हैं। कभी कोई आदमी पहाड़ से गिर गया; आल्प्स की चढ़ाई कर रहा था, पैर फिसल गया और गिर गया। भयंकर खड्ड ! निश्चित है कि वह मर रहा है, अब कोई बचने का उपाय नहीं । मौत घट गई। लेकिन संयोगवशात नहीं टकराया चट्टानों से उसका सिर, गिर गया नीचे हरी दूब पर, और बच गया। इस तरह के आदमी का अनुभव यह है कि मरने के क्षण में उसने परम आनंद का अनुभव किया। वह जो थोड़ी सी देर क्षण भर को बीती पहाड़ से गिरने में और घास पर आने में, उस बीच उसने जीवन का परम आनंद जाना। और ऐसी एकाध घटना नहीं है; ऐसी हजारों घटनाएं हैं। कि कोई आदमी नदी में डूब रहा था — और बिलकुल डूब चुका था, अपनी तरफ से तो मर चुका था - फिर लोगों ने खींच लिया, पानी निकाल डाला, और वह बच गया। ऐसे लोगों का भी यह अनुभव है कि उन्होंने उस डूबने के पहले क्षण में तो बड़ी पीड़ा जानी, क्योंकि वे मर रहे हैं, सब तरफ से वे घबरा गए; लेकिन थोड़ी ही देर में यह तय हो गया कि मरना है और वे राजी हो गए। करेंगे भी क्या ? कोई सुनने वाला नहीं। दूर-दूर तक आवाज गूंजती है, कोई उत्तर नहीं । राजी हो गए। और जैसे ही राजी हुए, एक अपरिसीम आनंद उतरने लगा। जैसे पर्दा हट गया, सब दुख खो गया।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मृत्यु का यह जो अनुभव कुछ लोगों को हुआ है, लाओत्से उसी अनुभव की चर्चा कर रहा है कि तुम मिट जाओ, आक्रांत हो जाओ। और यही तो समर्पण का सार सूत्र है कि तुम मिट जाओ। अगर तुम अपने हाथ से मिटने को राजी हो जाओ, लड़ो न, तो इसी क्षण समाधि घटित हो सकती है। समाधि पाने की चेष्टा से नहीं, क्योंकि वह भी संघर्ष है। आनंद को पाने की कोई कोशिश से नहीं, क्योंकि वह भी लड़ाई है। तुम राजी हो जाओ, जीवन जहां ले जाए । तत्क्षण तुम पाओगे, तुम्हारे राजी होते ही मृत्यु जैसी घटना घट गई; अहंकार मर. गया। और जो बच गया वह सच्चिदानंद है।
तो जो कभी-कभी आकस्मिक रूप से किसी दुर्घटना में घटा है, उसी को ही व्यवस्था दे दी है योग ने, तंत्र ने, धर्म ने; उसका विज्ञान बना दिया है। इसलिए जीसस कहते हैं, जब तक तुम मरोगे नहीं तब तक तुम्हारा पुनर्जन्म नहीं है। और जब तक तुम मिटोगे नहीं तब तक तुम उसे न पा सकोगे जो कभी नहीं मिटता है। इसलिए कृष्ण अर्जुन को कहते हैं, मामेकं शरणं व्रज, सर्वधर्मान् परित्यज्य । सब छोड़-छाड़ कर तू मेरी शरण आ जा। अर्जुन को भी वह मौत जैसी लगती है। इसलिए तो इतना संघर्ष करता है, इतनी लंबी गीता चलती है। वह लड़ता है सब तरफ से, तर्क खड़े करता है; वह शरण जाना नहीं चाहता। क्योंकि शरण जाने का मतलब है : मिट गए। शरण जाने का मतलब है : अब हम न रहे; किसी और की मरजी को हमने अपनी मरजी बना लिया। शरण जाने का अर्थ है : अब अहंकार को खड़े होने की कोई जगह न बची।
शिष्यत्व तभी उपलब्ध होता है जब कोई इतनी हिम्मत जुटाता है और किसी के चरणों में आकर मर जाता है। और कह देता है, जो था वह मर गया। अब मेरी कोई मरजी नहीं । अब जहां ले जाओ, जैसे ले जाओ, जो करवाओ, मैं चलूंगा। अब मैं छाया की तरह हो गया। अब मैं न सोचूंगा; अब सब सोचना-विचारना छोड़ दिया।
यह तो मृत्यु है । और इसी मृत्यु में तुम्हें पहली दफे अमृत का पता चलेगा। जैसे कि काले ब्लैकबोर्ड पर कोई सफेद चाक से लिख देता है तो दिखाई पड़ता है; सफेद दीवाल पर लिखे तो दिखाई नहीं पड़ता। ऐसे ही जब तुम्हारा अहंकार बिलकुल मर रहा होता है, उसकी मृत्यु की कालिमा चारों तरफ घिर जाती है, और उसी कालिमा में पहली दफे