________________
आक्रामक नहीं, आक्रांत ठोबा श्रेयस्कर है
इसलिए दुनिया में कोई भी राष्ट्र धार्मिक नहीं है। लोग सोचते हैं कि भारत धार्मिक है, गलती खयाल है। कोई राष्ट्र अब तक धार्मिक नहीं हुआ। अभी तो कभी-कभी व्यक्ति ही हो पाए हैं बड़ी मुश्किल से; राष्ट्र का होना तो करीब-करीब असंभव मालूम पड़ता है। करोड़-करोड़ लोग कैसे धार्मिक हो पाएंगे? राष्ट्र तो राजनैतिक ही रहे हैं। और राष्ट्र तो चाणक्य और मैक्यावेली से ही राजी हैं, लाओत्से से राजी नहीं हैं। तो दिल्ली में जहां राजनीतिज्ञ रहते हैं, उसका नाम हमने चाणक्यपुरी रखा हुआ है। जिन्होंने रखा सोच कर ही रखा होगा। उनको कुछ याद न पड़ा और कोई नाम। चाणक्य की स्मृति आई। वे सब चाणक्य हैं छोटे-मोटे, छटभैया; बहुत बड़े चाणक्य भी नहीं हैं। लेकिन रास्ते पर तो वही हैं; रास्ता वही है-आक्रमण का, दूसरे को मिटा डालने का।
दूसरे को मिटाने में एक आभास होता है; और वह आभास कि मैं न मिट सकंगा। जब भी तुम दूसरे को मिटाते हो तब तुमको अपने शाश्वत होने की भ्रांति होती है। तुम सोचते हो कि देखो, मैं तो मिटा सकता हूं, मुझे कौन मिटा सकेगा? इसलिए तो आक्रमण में इतना मजा है, इतना रस है।
लेकिन तुम मिटोगे। नेपोलियन, सिकंदर, हिटलर, कोई भी बचता नहीं। और तब तुम्हारी सब विजय की यात्राएं पड़ी रह जाएंगी। तुम मिटोगे। लेकिन जब तुम किसी को मिटाते हो तो क्षण भर को ऐसी भ्रांति होती है कि तुम्हें कौन मिटा सकेगा! तुम अपराजेय हो, तुम्हारी जीत आखिरी है। लेकिन ऐसी भ्रांति तुम्हीं को होती है, ऐसा मत समझना। सदा से होती रही है। और भ्रांति एक न एक दिन टूट जाती है। क्योंकि मौत तुम्हारी भ्रांतियों को नहीं देखती; मौत में तो वही बचता है जो सच्चा है। मौत परीक्षा है। सब झूठ गिर जाता है।
तो मौत सिकंदर को भी गांव के साधारण आदमी के साथ बराबर कर देती है। मौत भिखारी और सम्राट को बराबर कर देती है। दोनों एक से पड़े रह जाते हैं। सम्राट और भिखारी की लाश में रत्ती भर भी तो फर्क नहीं होता; दोनों धूल में पड़ जाते हैं और दोनों धूल में गिर जाते हैं। उमर खय्याम ने कहा है, डस्ट अनटू डस्ट। धूल धूल में गिर जाती है। और धूल अमीर की कि गरीब की, कोई भी तो अंतर नहीं है। क्या तुम किसी मरे हुए आदमी की लाश से पता लगा सकोगे कि यह सम्राट था कि भिखारी था? अमीर था कि गरीब था? सफल था कि असफल था? मौत उस सब को तोड़ देती है जो तुमने सपने की तरह बनाया था।
लाओत्से कहता है, आक्रांत हो जाना बेहतर, आक्रमण करना बेहतर नहीं।
और अगर तुम आक्रांत होने की कला सीख जाओ तो शत्र भी तुम्हें मित्र ही मालम पड़ेगा। क्योंकि जिसने तुम्हें मिटाया उसने ही तो तुम्हें बोध दिया उसका जो मिट नहीं सकता है। तब तुम शत्रु को भी धन्यवाद दोगे। अभी तो हालत ऐसी है कि मरते वक्त तुम मित्र की भी शिकायत ही करोगे। क्योंकि जब सब छूटने लगेगा तब तुम्हें लगेगा, जो संगी-साथी थे सब व्यर्थ, जिन्होंने सहारा दिया सब व्यर्थ, जो हमने किया वह सब व्यर्थ, समय यों ही गंवाया, कमाई कोई भी न हो सकी। लेकिन जो आक्रांत होने को राजी है, जो हार जाने को राजी है-बहुत कठिन है हार जाने को राजी होना, इसलिए तो धर्म कठिन है लेकिन जो हार जाने को राजी है वह उसे पा लेता है जिसकी फिर कोई हार नहीं। आक्रांत ही किसी दिन विजेता हो पाता है। ऐसे विजेताओं को हमने जिन कहा है-बुद्ध को, महावीर को–कि उन्होंने जीत लिया। और जीता उन्होंने हार कर।
'सैन्य रणनीतिज्ञों का यह सूत्र है : मैं आक्रमण में आगे होने का साहस नहीं करता, बल्कि आक्रांत होना पसंद करता हूं।'
मिट जाना बेहतर है मिटाने की बजाय। क्योंकि जितना तुम मिटाते जाओगे उतनी ही तुम्हारी भ्रांति मजबूत होती चली जाती है। मिटा देने दो सारी दुनिया को तुम्हें; तुम राजी हो जाओ मिटने से। और तुम अचानक पाओगे कि तुम्हारे भीतर कुछ बच रहा है जो कोई भी नहीं मिटा सकता। उसकी पहली दफा तुम्हें स्मृति आएगी। जब जो भी मिट
111