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________________ ताओ उपनिषद भाग हैं। यह क्षण भर का संयोग है। थोड़ी ही देर में सूरज नीचे उतर जाएगा, किरणों और पानी की बूंदों का कोण टूट जाएगा। इंद्रधनुष विदा हो जाएगा। या थोड़ी ही देर में बूंदें बरस जाएंगी, बादल खाली हो जाएगा। किरणें गुजरती रहेंगी, लेकिन इंद्रधनुष न बनेगा। इंद्रधनुष जैसा है अहंकार। संयोग है, सत्य नहीं है। कुछ चीजों के जोड़ से निर्मित है; जोड़ के टूटते ही खो जाएगा। इसलिए अहंकार सदा डरा हुआ है। अगर कहीं इंद्रधनुष में भी कोई चेतना होती तो तुम सोच सकते हो, इंद्रधनुष कंपता ही रहता-अब गया, तब गया। पल का भरोसा नहीं है। ऐसी ही दशा अहंकार की है। शरीर, मन और आत्मा के एक खास कोण पर मिलने से अहंकार निर्मित होता है। वह कोण टूट जाए, अहंकार विलीन हो जाता है। ध्यान की प्रक्रिया में हम उस कोण को तोड़ने का ही प्रयोग करते हैं कि वह कोण टूट जाए। एक दफा कोण टूटा कि तुम अचानक जाग कर देखते हो, तुम हो ही नहीं। तुम्हारे भीतर कुछ और है जिसको तुमने पहचाना भी न था कभी। परमात्मा है, तुम नहीं हो। पर कोण टूटे तो अहंकार का इंद्रधनुष विसर्जित हो जाता है, कोण बना रहे तो चलता रहता है। और तुम्हारी पूरी चेष्टा कोण को सम्हालने की रहती है कि जितना बैंक बैलेंस है वह कम न हो जाए, जितनी बाजार में प्रतिष्ठा है वह नीचे न गिर जाए। येन केन, कैसे भी तुम अपनी प्रतिष्ठा को बनाए रखते हो। घर सब खोखला हो जाता है तो भी बाहर तुम अपनी अकड़ को कायम रखते हो। भीतर दिवाला निकल जाता है तो भी बाहर तुम रईस की तरह ही चलते हो। सम्हालना है किसी तरह कोण को; जरा भी हिल जाए कोण, टूट जाएगा। सब तरह से तुम सम्हालते हो। सब तरह से धोखा देते हो। दूसरों को देते हो वह तो ठीक है, लेकिन वह गौण है। मूलतः अपने को देते हो। .. अहंकार एक संयोग है और आत्मा एक सत्य है। संयोग के कारण तुम आत्मा को भूल जाते हो। इंद्रधनुष में रंग बहुत सुंदर हैं; आकाश तो खाली है। कहना चाहिए आकाश में कोई रंग नहीं है। आकाश तो रंगहीन है, निर्गुण है। आकाश को कौन देखता है? इंद्रधनुष होता है तो तुम आकाश की तरफ आंख उठाते हो। और इंद्रधनुष में बड़ा रस मालूम पड़ता है। सपने जैसा है, लेकिन बड़ा रंगीन है। और अहंकार भी सपने जैसा है, बड़ा रंगीन है। आत्मा निर्जन है, शून्य है, निराकार है; वहां कोई रंग नहीं है, कोई आकृति नहीं है, कोई परिभाषा नहीं है। सूने आकाश की। भांति है। तो इंद्रधनुष को तुम सम्हालते हो। जो नहीं है उसे सम्हालते हो, और जो है उसे भूल जाते हो। आंखें गड़ जाती हैं क्षणभंगुर पर, और शाश्वत का विसर्जन हो जाता है, विस्मरण हो जाता है। इसलिए जितने भी अहंकार के समर्थक हैं, चाणक्य, मैक्यावेली, वे कहते हैं, दूसरे पर हमला कर देना पहले, नहीं तो तुम्हारी हार शुरू हो गई। दूसरे को पहले भयभीत कर देना, नहीं तो वह तुम्हें भयभीत कर देगा। इसके पहले कि कोई तुम्हें कंपाए, तुम दूसरे को कंपा देना। तुम इतना कंपा देना कि वह खुद को सम्हालने में लग जाए और तुम्हें कंपाने की क्षमता न रह जाए। लाओत्से इनसे बिलकुल विपरीत है। लाओत्से की रणनीति का पहला सूत्र है कि 'मैं आक्रमण में आगे होने का साहस नहीं करता, बल्कि आक्रांत होना पसंद करता हूं। एक इंच आगे बढ़ने की बजाय एक फुट पीछे हटना श्रेयस्कर है।' दुनिया का कौन राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ, रणनीतिज्ञ लाओत्से से राजी होगा? लेकिन बुद्ध, कृष्ण और क्राइस्ट राजी होंगे। क्योंकि लाओत्से यह कह रहा है कि आक्रमण करने में तो तुम्हारा अहंकार मजबूत ही होगा, आक्रांत होने में शायद टूट जाए। आक्रमण में तो तुम दूसरे का शायद तोड़ दो, लेकिन उससे तुम्हें क्या लाभ है? आक्रांत होने में तुम्हारा टूट जाएगा। और इससे बड़ी क्या विजय हो सकती है कि अहंकार टूट जाए! तुम कंप जाओ तुम्हारी जड़ों से, इससे ज्यादा श्रेयस्कर कुछ भी नहीं है। क्योंकि उस कंपने में ही शायद तुम्हें इंद्रधनुष की तरफ से ध्यान हट जाए, और आत्मा की तरफ, आकाश की तरफ ध्यान उठ जाए। |108
SR No.002376
Book TitleTao Upnishad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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