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आक्रामक बही, आक्रांत छोना श्रेयस्कर है
एक बात तो निश्चित है कि जैसे तुम हो अगर तुम ऐसे ही सम्हले रहे तो तुम परमात्मा को कभी न पा सकोगे। तुम्हें हिल जाना तो जरूरी है। आए एक तूफान और गिरा दे तुम्हारे भवन को; आए आंधी और हिला दे तुम्हें जड़ों से; आए भयंकर झंझावात, टुकड़े-टुकड़े हो जाए तुम्हारा इंद्रधनुष, तो ही शायद तुम जाग सको।।
और लाओत्से कहता है कि तुम आक्रमण मत करना, तुम आक्रांत होना। दूसरा आक्रमण करे, ठीक; तुम आक्रमण मत करना। क्योंकि आक्रांत होने की दशा में ही तुम जाग सकते हो। गहन दुख में ही तुम जागोगे। सुख में तो तुम नींद से भर जाते हो। सुख में तो तुम सम्मोहित हो जाते हो। विजय जब हो रही हो तब कभी कोई जागा है ? जब तुम जीत रहे हो संसार में तब कभी संन्यास का खयाल उठा है? जब तुम्हारा भवन बड़ा होता जाता है और धन का अंबार लगता जाता है तब तुमने कभी बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट के संबंध में सोचा है? जब सब तरफ सुख है-लगता है कि सुख है-जब सब तरफ जीत है, जब सब तरफ सफलता मिलती है, तब तुम्हें कभी परमात्मा का स्मरण आता है?
__ नहीं आता। कोई कारण नहीं है। तुम खुद ही काफी मालूम पड़ते हो। परमात्मा की कोई जरूरत नहीं है। और सब चीजें इतनी ठीक जा रही हैं कि यह खयाल ही नहीं आता कि जिस नाव में हम यात्रा कर रहे हैं वह कागज की है। यात्रा सब ठीक चल रही है तो कागज की नाव कैसे हो सकती है!
डूबते हो, तभी पता चलता है कि नाव कागज की थी। मिटते हो, गिरते हो, तभी पता चलता है कि जिसका सहारा लिया था वह कोई सहारा न था। जब आक्रांत होते हो सब तरफ से, सब तरफ से तुम्हारे संसार का दिवाला निकल जाता है, बैंक्रप्ट हो जाते हो, तभी तुम्हें याद आती है कि जिन चीजों पर भरोसा किया था वे भरोसे योग्य ही न थीं; जिन-जिन का सहारा लिया था वे सहारे न थे, सहारे की भ्रांतियां थे; और जिसको अपना जाना था वह • अपना न था। वे सब किसी और बात के कारण संगी-साथी थे; दुख में सब छोड़ जाते हैं। सब प्रेम खोखला मालूम होने लगता है। सब आसक्ति के पीछे कुछ और दिखाई पड़ता है। लोभ होगा, धन होगा और हजार बातें होंगी-लेकिन प्रेम नहीं। जब तुम सब भांति आक्रांत और टूट कर गिर गए होते हो तब तुम्हारे पास कोई होता है तो ही पता चलता है कि कोई प्रेम था, कोई संगी-साथी था; अन्यथा कुछ पता नहीं चलता।
बौद्ध कथा है, एक बौद्ध भिक्षु गांव से गुजरता है। एक वेश्या ने देखा; मोहित हो गई। संन्यासी और वेश्या दो छोर हैं विपरीत, और विपरीत छोरों में बड़ा आकर्षण होता है। वेश्या को साधारण सांसारिक व्यक्ति बहुत आकर्षित नहीं करता; क्योंकि वह तो उसके पैर दबाता रहता है, वह तो सदा दरवाजे पर खड़ा रहता है कि कब बुला लो। वेश्या को अगर आकर्षण मालूम होता है तो संन्यासी में, जो कि ऐसे चलता है रास्ते पर जैसे उसने उसे देखा ही नहीं। जहां उसका सौंदर्य ठुकरा दिया जाता है, जहां उसके सौंदर्य की उपेक्षा होती है, वहीं प्रबल आकर्षण होता है, वहीं पुकार उठती है-चुनौती! वेश्या बड़ी सुंदरी थी।
उन दिनों भारत में एक रिवाज था कि गांव की या नगर की जो सबसे सुंदर युवती होती उसका विवाह नहीं करते थे, क्योंकि वह ज्यादती होगी गांव के साथ। कोई एक उसका मालिक हो जाए-बड़े समाजवादी लोग थे—इतनी सुंदर स्त्री का एक मालिक हो जाए तो सारा गांव जलेगा। इस झगड़े को खड़ा करना ठीक नहीं। इसलिए सबसे सुंदर लड़की को नगरवधू की तरह घोषित कर देते थे कि वह सारे गांव की पत्नी है। वेश्या का वही मतलब।
और उसका बड़ा सम्मान था, बड़ा आदर था। क्योंकि सम्राट भी उसके द्वार पर आते थे। वह नगरवधू थी। आम्रपाली का तुमने नाम सुना, वैसी ही नगरवधू वह भी थी।
भिक्षु वहां से गुजर गया। वह द्वार पर खड़ी थी। भिक्षु की आंख भी न उठी; वह कहीं और लीन था, किसी और आयाम में था, किसी और जगत में था। वह भागी, भिक्षु को रोका। रोक लिया तो भिक्षु रुक गया, लेकिन उसके चेहरे पर कोई हवा का झोंका भी न आया, आंख में कोई वासना की दीप्ति न आई। वह वैसे ही खड़ा रहा। उस वेश्या
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