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________________ पुनः अपने मूल स्रोत से जुड़ो भर जाता हो। क्योंकि कुछ खोया, पाया कुछ भी नहीं। कुछ गंवाया, जीवन-ऊर्जा बाहर गई, तुम थोड़े दरिद्र हुए। मरते वक्त भी ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो विषाद से न भर जाता हो; क्योंकि पूरा जीवन सिवाय खोने के कुछ भी न रहा। कभी इस वासना में गंवाया, कभी उस वासना में गंवाया। लाओत्से कहता है, 'छिद्रों को भर दो।' निर्वासना छिद्रों का भर जाना हो जाएगी। 'द्वारों को बंद करो।' मन को दौड़ाओ मत, क्योंकि मन के घोड़े दौड़े कि जल्दी ही शरीर भी पीछा करेगा। शरीर को पीछा करना पड़ता है; जहां मन जाता है वहीं शरीर जाता है। ___ और व्यक्ति का पूरा जीवन श्रम-मुक्त हो जाता है।' तब तुम अपने भीतर परिपूर्ण हो जाते हो। न ऊर्जा बाहर जाती है, न तुम्हारा चित्त बाहर जाता; तुम अपने एकांत में परिपूर्ण हो जाते हो, तुम अपने भीतर आत्मवान हो जाते हो, अब तुम दीन न रहे। अब तुम किसी के ऊपर निर्भर न रहे। अब तुम्हारा आनंद अपना है। अब कोई उसे दे, ऐसी आकांक्षा न रही। अब तुम भिखारी न रहे। अब तुम भिक्षा-पात्र न फैलाओगे किसी के सामने; तुम मांगोगे नहीं। यही तो संन्यास की गरिमा है। यही तो संत का गौरव है कि वह अपने में ऐसा भरा-पूरा हो जाता है। और भरा-पूरा तुम भी हो सकते हो, लेकिन तुम छेद भरी बाल्टी हो। भरते तुम भी हो, लेकिन छिद्रों से सब बह जाता है। भरो छिद्रों को, रोक दो द्वारों को। लेकिन यह तुम तभी कर पाओगे जब तुम मूल स्रोत से जुड़े रहो। इसको खयाल में रखना, क्योंकि बहुत से लोग बिना मूल स्रोत से जुड़े छिद्रों को भरने की कोशिश करते हैं। वे और मुश्किल में पड़ जाते हैं। उनसे तो तुम्हीं बेहतर हो। वे पागल हो जाते हैं। मनसविद कहते हैं कि पागलखानों में बंद नब्बे प्रतिशत लोग कामवासना के साथ दमन करने के कारण पागल हैं। तो तुम ऐसा मत करना कि मूल स्रोत से बिना जुड़े और तुम अगर कामवासना से लड़ने लगे, तो तुम्हारी वही दशा हो जाएगी जो चाय बनाते वक्त कभी केतली की हो जाती है कि ढक्कन मजबूत है, खुलता नहीं; सब द्वार-छिद्र बंद हैं और भाप भयंकर है, और आग नीचे जल रही है। तो विस्फोट होगा। वही विक्षिप्तता है। ऐसा ही जब तुम्हारे भीतर विस्फोट होता है-शक्ति तुम लेते चले जाते हो; द्वार-छिद्र बंद कर देते हो; आश्रमों में, हिमालय में छिपे अनेक संन्यासी यही कर रहे हैं-तब एक विस्फोट होता है। तब सब टूट-फूट जाता है। वह विस्फोट परमात्मा से मिलना नहीं है। वह विस्फोट तो सबसे बड़ी दूरी है। फिर तो रास्ता बिलकुल भटक गया। पहले मूल स्रोत से जुड़ो। ध्यान पहले हैं। फिर ही जीवन-ऊर्जा का रूपांतरण हो सकता है। पहले तुम चेतना को शुद्ध, निर्मल, प्रथम क्षण में ले चलो। उस प्रथम क्षण में बैठ कर द्वार को बंद कर लेना बिलकुल आसान है। क्योंकि उस प्रथम क्षण में तुम इतने आनंदित हो कि अब कोई आकांक्षा नहीं है, जबर्दस्ती करने की कोई जरूरत नहीं है, द्वार जैसे अपने आप ही बंद हो जाते हैं। छिद्र जैसे न उपयोग में आने के कारण धीरे-धीरे अपने आप बंद हो जाते हैं। तुम अपने भीतर समाविष्ट हो जाते हो। तुम अपने भीतर काफी, पर्याप्त हो जाते हो। और तुम इतनी ऊर्जा से भरे होते हो, बाढ़ जैसे आ गई हो। तुम्हारी दीनता, दारिद्रय सब मिट जाता है। तुम पहली दफा सम्राट हो जाते हो। 'उसके छिद्रों को खुला छोड़ दो, उसके कारोबार में व्यस्त रहो, और फिर आजीवन मुक्ति का कोई उपाय नहीं है।' वासना को बना लो अपना कारोबार-जो कि तुमने बनाया है—फिर जीवन भर उसमें व्यस्त रहो, छिद्र खुले रहें, द्वार खुले रहें, तुम रिसते जाओगे, तुम धीरे-धीरे खाली होकर मर जाओगे। खाली होकर मरे तो दुख में मरोगे। भरे हुए मरे तो जैसा कबीर कहते हैं, जिस मरने से जग डरे मेरो मन आनंद, कब मरिहों कब भेटिहों पूरन परमानंद। 85
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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