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ताओ उपनिषद भाग ५
अब पहले दिन प्रकाश और अंधेरा हो कैसे सकता है? और चौथे दिन सूरज-चांद-तारे पैदा किए! असल में, यह खयाल ही कि पहले दिन कुछ किया, दूसरे दिन कुछ किया, तीसरे दिन कुछ किया, खंड-खंड है। अस्तित्व इकट्ठा है। इसको तुमने एक दिन थोड़ा सा कर लिया, फिर दूसरे दिन थोड़ा सा कर लिया, मुश्किल में पड़ोगे। पहले दिन अगर प्रकाश और अंधकार पैदा करोगे तो करोगे कैसे बिना सूरज के, बिना चांद-तारों के? और चौथे दिन चांद-तारे पैदा करोगे? नहीं, अस्तित्व अखंड है। सारा अस्तित्व इकट्ठा है।
___ एक बहुत बड़ा विचारक हुआ पश्चिम में, लुडविग विटगिंस्टीन। उससे किसी ने कहा कि तुम अपनी आत्मकथा लिख दो। उसने कहा, बहुत मुश्किल है। तब मुझे सारे अस्तित्व की आत्मकथा लिखनी पड़ेगी, क्योंकि सब चीजें जुड़ी हैं। मैं कहां से शुरू करूंगा और कहां अंत करूंगा?
यह बाइबिल की घटना बच्चों के लिए समझाने के लिए तो ठीक है, लेकिन बुद्धिमानों के समझाने के लिए ठीक नहीं है कि पहले दिन यह किया, दूसरे दिन यह किया, तीसरे दिन यह किया, और छह दिन में सृष्टि पूरी हो गई; और सातवें दिन विश्राम किया, छुट्टी का दिन आ गया। बात ठीक है, बच्चों को समझानी हो ठीक है। लेकिन अस्तित्व एक साथ है; इसे तुम बांट न सकोगे। यहां सब जुड़ा है। यहां तुम एक फूल को हिलाओ, और आकाश के चांद-तारों तक खबर पहुंच जाती है। तुम यहां एक फूल तोड़ो, और परमात्मा के हृदय तक कंपन पहुंच जाता है। सब संयुक्त है। यह जो संयुक्तता है, इसे जान लेना ही परमात्मा को जानना है। और इस संयुक्तता को अगर पहचानना हो तो तुम मूल में ही पहचान सकोगे। क्योंकि वहां चीजें सब साथ-साथ होती हैं, संगठित होती हैं, सूक्ष्म होती हैं, शुद्ध होती हैं। यात्रा की धूल नहीं होती। फिर तो बहुत कुछ जुड़ता चला जाता है। गंगोत्री में गंगा शुद्धतम है; फिर तो बहुत नदी-नाले गिरते हैं। फिर तो गंगा उन नदी-नालों में खो ही जाती है। काशी में आकर अपवित्रतम हो जाती है, जहां तुम जाकर पूजा करते हो। क्योंकि वहां कितने नदी-नाले, कितने कानपुर और कितने इलाहाबाद और कितना कूड़ा-कर्कट, सब आकर मिल गया। गंगोत्री में शुद्ध है; वहां सिर्फ गंगा गंगा है। जैसे-जैसे विस्तार होता है वैसे-वैसे चीजें अशुद्ध होती जाती हैं। सूक्ष्म को ही जानना पड़ेगा।
'जिसे ब्रह्मांड की माता कहा जा सकता है।' उससे हम विस्तार को समझ लेंगे। लेकिन विस्तार से तुम उसे न समझ सकोगे। 'माता से जुड़े रहो-मूल उदगम के साथ बने रहो-फिर तुम्हारे जीवन में कोई हानि न होगी।'
तुम खोज लो अपने भीतर ही गंगोत्री को और उससे जुड़े रहो। करो कुछ भी, जुड़े रहो उससे जहां से चेतना जन्मी है। उस पहले प्रकाश-क्षण को, उस पहले अलौकिक ज्योतिर्मय क्षण को तुम पकड़ लो; तुम समय के बाहर हो गए। अगर तुमने मूल को समझ लिया, उदगम को, तो उसको समझ कर तुम एक काम करोगे।
"छिद्रों को भर दो, द्वारों को बंद करो, और व्यक्ति का पूरा जीवन श्रम-मुक्त हो जाता है।'
छिद्र क्या हैं? द्वार कहां हैं? छिद्र हैं तुम्हारे, द्वार हैं। द्वार हैं तुम्हारी वासनाएं। तुम कभी सोचो। तुम्हारे मन में कामवासना उठी, तो मस्तिष्क एक कामवासना के धुएं से आच्छादित हो जाता है; विचार चलने लगते हैं, कामोत्तेजना प्रगाढ़ होने लगती है। यह द्वार है, क्योंकि यहां से तुम बाहर जाते हो। तुम्हारे सब द्वार तुम्हारे मस्तिष्क में हैं, और तुम्हारे जब छिद्र तुम्हारे शरीर में हैं। फिर जब बहुत कामवासना घनी हो जाती है तो कोई उपाय नहीं रह जाता; तुम अपनी जीवन-ऊर्जा को शरीर के छिद्रों से बाहर फेंक देते हो। तभी तुम्हें राहत मिलती है। वासना पैदा होती है मन में, शरीर में पूर्ण होती है। द्वार मन में है; छिद्र शरीर में है। जननेंद्रिय छिद्र है, कामवासना द्वार है। और जब भी तुम वासना से भरे तब द्वार खुल गया; तुम चले बाहर। और इसका आखिरी परिणाम यह होगा कि तुम कुछ खोकर लौटोगे, कुछ गंवा कर लौटोगे। इसीलिए तो संभोग के बाद ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो किंचित विषाद से न
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