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________________ पुनः अपने मूल स्रोत से जुड़ो मर जाता है इसी कारण। तब हत्या हो गई। क्योंकि उसकी श्वास अवरुद्ध हो जाती है। और अगर यह ज्यादा देर तक चल जाए, या रोज चलता रहे, तो भयंकर घातक है-हिंसा है। तो महावीर और लाओत्से और गहरा ले जाते हैं। वे कहते हैं, जन्म ठीक उस क्षण होता है जब गर्भाधान होता है। लेकिन वह भी काफी नहीं है। और पीछे जाया जा सकता है। क्योंकि गर्भाधान तो एक पहलू है सिक्के का; दूसरा पहलू है एक बूढ़े आदमी का मरना। वहां से शरीर-आत्मा अलग होते हैं और यहां फिर से जुड़ते हैं। तो जब एक बूढ़ा आदमी मर रहा है, तब आधा हिस्सा वहां है जन्म का, और आधा गर्भाधान में है। ये दो पहलू हैं। अगर तुम और गहरे उतरोगे तो तुम पिछले जन्म में पहुंच जाओगे। और तब तुम्हारे लिए द्वार खुल गया। तब मूल इन जन्मों में खोजने से न मिलेगा। तब तो अनंत जन्म हैं। और उन जन्मों के पार, और पार, और पार जब तुम मूल उदगम पर पहुंचोगे जहां तुम्हारा पहला आविर्भाव हुआ। उसको लाओत्से कहता है, वहां तुम्हें माता मिलेगी, जब पहला आविर्भाव हुआ, जब पहली बार चेतना ने शरीर में प्रवेश किया। वह जो प्राथमिक है वही प्राइमल है। अभी जैनोव को बहुत यात्रा करनी पड़ेगी प्राइमल को खोजने के लिए। यह प्राथमिक नहीं है। यह तो काफी पुरानी यात्रा है। लेकिन फिर भी उपयोगी है। और अनेक बीमारियां सिर्फ जन्म तक पहुंचते ही विलीन हो जाती हैं। स्मरण मात्र से, तुम चकित होओगे कि मन तनाव खो देता है, और फिर से बच्चे का तुम्हारे भीतर उदय हो जाता है। तुम कल्पना करो कि जिन लोगों ने प्रथम क्षण पा लिया है अपने जन्म का, अनंत यात्राओं के पूर्व, उनका मन कैसा निर्मल न हो जाता होगा! उसी को हमने संत कहा है, जिसने आदि उदगम पा लिया। उसकी निर्मलता परम है। उसने परमात्मा को चुरा लिया। अब उसे पाने को कुछ भी न बचा। जिसने परमात्मा को चुरा लिया उसे पाने को क्या बचा? सब पा लिया गया। तब परम तृप्ति है। परमात्मा को पाए बिना कोई कभी तृप्त नहीं हुआ है। होना भी नहीं चाहिए। जो हो गए वे नासमझ हैं। उन्हें हीरा मिला ही नहीं; कंकड़-पत्थर से राजी हो गए। कम से राजी मत होना, परमात्मा से कम से राजी मत होना। कितनी ही लंबी हो यात्रा, कितना ही श्रम हो, कितना ही भटकना पड़े, कितना ही गहन अंधेरा हो, जारी रखना प्रयास। अब हम सूत्र को समझने की कोशिश करें। 'ब्रह्मांड का एक आदि था, जिसे ब्रह्मांड की माता माना जा सकता है। माता से हम उसके पुत्रों को जान सकते हैं, लेकिन पुत्रों को जान कर माता को नहीं। पुत्रों को जान कर भी माता से जुड़े रहो; इस प्रकार व्यक्ति का पूरा जीवन हानि से बचाया जा सकता है।' - एक ही उपाय है तुम्हें हानि से बचने का और वह यह है कि तुम पीछे लौटो; तुम उस क्षण को पुनः प्राप्त करो जहां से हानि शुरू हुई। जैसे कोई आदमी यात्रा करता हो और किसी चौराहे पर भटक जाए; जहां जाना था, वह राह न पकड़े, कोई और राह पकड़ ले। फिर कई मील चलने के बाद पता चले कि भूल हो गई, तो वह क्या करेगा? वापस चौराहे पर लौटना होगा। अगर वह कहे, अब इतने चल चुके, अब कैसे वापस लौटें? अब इतना तो लगा चुके दांव पर, अब कहां जाएं? और जाने से अगर डरे। डर आएगा। क्योंकि कोई आदमी तीस साल चल चुका, कोई पचास साल चल चुका, कोई पचास जन्म, कोई पचास हजार जन्म चल चुका। इतना तो इसमें न्यस्त हो गया हमारा जीवन। अब अचानक पता चलता है कि हम गलत मार्ग चुन लिए हैं; पीछे छूट गया चौराहा बहुत। और इसीलिए तो लोग संतों के पास जाने से डरते हैं। क्योंकि उनके पास जाकर आनंद तो मिलेगा, लेकिन बहुत बाद में। पहले तो बड़ी पीड़ा मिलेगी। पहली पीड़ा तो यह होगी कि तुम गलत हो। अब तक तुम यही माने रहे कि तुम ठीक हो। होगी सारी दुनिया गलत, तुम कभी गलत नहीं हो। संत के पास जाकर पहली पीड़ा तो यह भोगनी पड़ेगी कि तुम अचानक पाओगे : सारा जीवन तुम्हारा व्यर्थ है, तुमने सिवाय भूलों के और कुछ भी नहीं किया। तुमने 81
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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