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पुनः अपने मूल स्रोत से जुड़ो
साधारण कहावत ठीक है। लेकिन साधारण कहावत साधारण लोगों ने निर्मित की है। और लाओत्से जो कह रहा है वह उलटा दिखाई पड़ता है, लेकिन बहुत गहरा है। जिससे हम पैदा होते हैं उससे हम बड़े नहीं हो सकते। मूल से बड़े नहीं हो सकते; उदगम से बड़े नहीं हो सकते। क्योंकि जिससे हम आते हैं उससे बड़े हम कैसे हो सकते हैं? उससे छोटे हो सकते हैं। और अगर जीवन को साधना बनाएं तो उसके जैसे हो सकते हैं, लेकिन उससे बड़े होने का कोई उपाय नहीं। अगर भटक जाएं तो छोटे हो सकते हैं। इसलिए बेटे से बाप की पूरी खबर नहीं मिल सकती, क्योंकि बाप सदा बेटे से बड़ा है।
इसीलिए तो पूरब के मुल्कों में हम बाप को, मां को इतनी श्रद्धा देते हैं। पश्चिम में वैसी श्रद्धा नहीं है। और कारण उसका है कि पश्चिम में वे सोचते हैं, जो दिखाई पड़ता है स्थूल, वह उनका तर्क है। अगर तुम गंगोत्री पर जाओ तो गंगा बहुत छोटी है, बड़ी सूक्ष्म है। काशी में आकर खूब विराट है। लाओत्से कहता है कि अगर गंगा को पहचानना हो तो गंगोत्री! और हम तो कहेंगे, गंगोत्री में क्या रखा है? जरा सा झरना बहता है; बूंद-बूंद पानी रिसता है। गौमुख से बहती है गंगा गंगोत्री में कितनी छोटी होगी। वहां क्या रखा है? वृक्ष की जड़ों में क्या रखा है? देखना हो वृक्ष को तो फूलों और फलों में देखो। बड़ा विस्तार है वहां।।
माना विस्तार है, लेकिन जो विस्तीर्ण होकर दिखाई पड़ रहा है, वह सब अंकुर में छिपा था, बीज में छिपा था, जड़ में छिपा था। और ध्यान रहे, जो दिखाई पड़ रहा है उससे ज्यादा मूल में हमेशा छिपा है। मूल अनंत है। जो दिखाई पड़ रहा है...। यह वृक्ष सामने खड़ा है, यह पूरा नहीं है। क्योंकि हर वर्ष ये पत्ते गिर जाते हैं; फिर नए पत्ते
आ जाते हैं। ऐसा सैकड़ों बार हुआ है, सैकड़ों बार होगा। हर बार हजारों-लाखों बीज लगते हैं, फिर लग जाते हैं। मूल देता ही चला जाता है। गंगा बहती ही चली जाती है। गंगोत्री सूक्ष्म है, छोटी नहीं। और जिसने सूक्ष्म को पहचान लिया वही विस्तार को समझ पाता है। विस्तार दिखाई पड़ता है, स्थूल आंखें उसे देख लेती हैं। मूल दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन मूल में सब छिपा है। और मूल में अनंत संभावनाएं छिपी हैं। मूल में वह भी छिपा है जो हो गया; वह भी छिपा है जो हो रहा है। वह भी छिपा है जो होगा। विस्तार तो एक क्षण का है; मूल शाश्वत है। विस्तार तो अभी है, सीमित है; मूल असीम है। सब आदि और अंत उसमें छिपे हैं।
तो लाओत्से की समस्त प्रक्रियाएं मूल की तरफ जाने वाली हैं। लाओत्से कहता है, मूल उदगम को खोज लो। परमात्मा विकास का आखिरी फूल नहीं है लाओत्से के हिसाब से। परमात्मा सभी चीजों का मूल उदगम है, मूल स्रोत है। जितना तुम स्रोत की तरफ जाओगे उतना वह छोटा होता जाता है। जितना स्रोत की तरफ जाओगे उतना वह अदृश्य होता चला जाता है। और उस अदृश्य को देखना हो तो तुम्हारी दृष्टि को जमाना पड़ेगा। इस दृष्टि से तुम न देख पाओगे; उसके लिए बड़ी सूक्ष्म, पैनी दृष्टि चाहिए। तुम्हारी आंखें थिर चाहिए, तुम्हारा ध्यान अकंप चाहिए। जितना अकंप ध्यान होगा उतना तुम सूक्ष्म को देख सकोगे। और जिसने सूक्ष्म देख लिया उसने सब देख लिया।
इसका यह अर्थ हुआ कि ध्यान का अर्थ पीछे की तरफ लौटना है। पतंजलि ने इस क्रिया को ही प्रत्याहार कहा है। प्रत्याहार का अर्थ है वापस लौटना। महावीर ने इसी प्रक्रिया को प्रतिक्रमण कहा है। प्रतिक्रमण का अर्थ भी है रिटर्निंग बैक, पीछे की तरफ लौटना। आक्रमण है आगे की तरफ जाना, झपटना, दौड़ना, बाहर की तरफ; प्रतिक्रमण है भीतर की तरफ लौटना। प्रत्याहार। मूल में समा जाना; जहां से आए हैं उसी तरफ जाना।।
अभी पश्चिम में एक बहुत महत्वपूर्ण प्रयोग चल रहा है। जैनोव नाम का एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक, पश्चिम में जो थोड़ी सी महत्वपूर्ण घटनाएं घट रही हैं उनमें जैनोव एक महत्वपूर्ण घटना है। उसने एक नए मनस-चिकित्सा शास्त्र को जन्म दिया है-प्राइमल थैरेपी। पूरी की पूरी चिकित्सा मूल की तरफ लौटने की है। अगर जैनोव सफल होता है तो पश्चिम में जैनोव के माध्यम से लाओत्से का प्रभाव बहुत बढ़ेगा।
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