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________________ ताओ या धर्म पारतिक है; सदगुण की तरफ पूजा दौड़ती है। ऐसा अपने आप है। ऐसा कोई परमात्मा नियंता की तरह बैठा हुआ नहीं है जो आज्ञा दे रहा है कि ऐसा करो, ऐसा मत करो। इस संसार में आज्ञा है ही नहीं। तुम परम स्वतंत्र हो। लेकिन इस स्वतंत्रता में भी कुछ नियम हैं। वे स्वतंत्रता के ही नियम हैं; उनसे तुम परतंत्र नहीं हो। वे स्वतंत्रता का स्वभाव हैं। . 'ऐसा अपने आप है, किसी के हुक्म से नहीं।' लाओत्से किसी ईश्वर में नहीं मानता है, कि जो दुनिया को चला रहा है। तुम थोड़ा सोचो। अगर ईश्वर दुनिया को चला रहा हो तो या तो कब का पागल हो गया होता, या कभी का आत्मघात कर लिया होता, या कभी का भाग गया होता इस दुनिया को छोड़ कर कहीं हिमालय-अगर हो अस्तित्व में कोई-संन्यासी हो गया होता। गृहस्थ भाग जाते हैं। एक गृहस्थी काफी थका देती है। यह पूरे संसार की गृहस्थी कोई चला रहा हो, तुम सोच सकते हो। नहीं, कोई व्यक्ति नहीं है जो चला रहा है। अस्तित्व अपने से चल रहा है, किसी की आज्ञा से नहीं। यह अस्तित्व का पूरा होना ही परमात्मा है; यहां कोई व्यक्ति की तरह बैठा हुआ नहीं है। ताओ उन्हें जन्म देता है-सदगुणों को–चरित्र, तेह उनका पालन करता है, उन्हें बड़ा करता है, विकास देता है, आश्रय देता है, शांति से रहने की जगह देता है।' । सदगुण का जन्म तो होता है ताओ में, फिर विकास, सुविधा विकास की, अवकाश, स्थान चरित्र देता है। इसलिए एक बात खयाल रखना। जो भी तुम्हारे ध्यान में पैदा हो उसका तुम रस ही मत लेना, उसे जीवन में भी लाना। उसका रस लेना खूब गहरा है, लेकिन काफी नहीं है। क्योंकि वह खो जा सकता है। तीन तरह की स्थितियां हैं साधक के लिए। एक तो स्थिति है कि तुम दूर से देखते हो हिमालय के शिखर को, हिमाच्छादित। बादल हट गए हैं, सुबह सूरज निकला है, तुम हजारों मील दूर से देखते हो हिमाच्छादित शिखर को। देख कर भी एक शीतलता मन में छा जाती है; हृदय आनंदित, उत्फुल्लित हो जाता है। एक पुकार मच जाती है और पास जाने की। लेकिन इसको तुम सब कुछ मत समझ लेना। तुम यहीं मत बैठ जाना। यह सिर्फ झलक है। यह पहली समाधि है-झलक। यहूदी फकीर झुसिया के संबंध में एक कथा है। एक दिन अपने शिष्यों के साथ बैठा था। अचानक उठा और एक शिष्य को हाथ पकड़ कर खिड़की के पास ले गया और कहा कि देख! शिष्य ने खिड़की के बाहर देखा। चांद की रात थी, पूरे चांद की रात। बड़ी शांत, स्निग्ध रात्रि थी। बड़ा नीरव संगीत छाया था। सब चुप था। और गुरु ने इतने जोर से कहा कि देख कि उस कहने में विचार की प्रक्रिया बंद हो गई। उसने गौर से देखा कि क्या मामला है? ऐसा तो कभी झसिया ने किया नहीं। देखा और तब उसे याद आया, विचार एक क्षण को रुक गए। उस क्षण में एक अपरिसीम सौंदर्य प्रकट हुआ। वह घुटने टेक कर गुरु के चरणों में सिर रख दिया, रोने लगा, और कहा कि जो आज देखा है वह कब मेरा जीवन बन पाएगा? कितने जन्म लगेंगे? झलक जीवन नहीं है; झलक से स्वाद जग जाएगा। लेकिन उसे तुम काफी मत समझ लेना। ध्यान के रस में डूब मत जाना। ध्यान का रस झलक है, उसे आचरण में सम्हालना, जड़ें देना, जगह बनाना, उसको फैलाना। जैसे-जैसे तुम फैलाओगे, झलक बदलने लगेगी। तब एक दूसरी अवस्था है, कि एक आदमी गौरीशंकर पर पहुंच गया। अब वह वहीं बैठा है जहां परम सौंदर्य है; उसके बीच में बैठा है। लेकिन यह भी अंत नहीं है। अभी भी गिरना हो सकता है। अभी भी लौट सकता है। अभी लौटने का उपाय है। जिन पैरों से आया है वे ही वापस ले जा सकते हैं। जिस मन से यहां तक आ गया है उसी मन से वापस भी लौट सकता है। सीढ़ी लगी है। 69
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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