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ताओ या धर्म पानबतिक हैं
लाओत्से कहता है, यह आदत धोखा है, आचरण नहीं। क्योंकि जो ऊपर से थोपा गया है वह ऊपर ही रहेगा। समाज के लिए काफी हो, परमात्मा के खोजियों के लिए काफी नहीं है। फिर कैसे सदगुण पैदा होता है?
लाओत्से कहता है, सदगुण का जन्म स्वभाव की अनुभूति से होता है, आत्मबोध से होता है, ध्यान से हो सकता है। पाप, दंड, पुरस्कार, पुण्य, इस तरह की धारणाओं को जोड़ने से नहीं हो सकता। इस तरह की धारणाएं आदत बना सकती हैं, और आदत को हम आचरण समझ लेते हैं।
तुम अगर जैन घर में पैदा हुए हो तो मांसाहार नहीं कर सकते। लेकिन यह तुम्हारी आदत है। पचास साल तक तुमने मांसाहार नहीं किया। और मांसाहार गंदी बात है, घृणित है, शब्द ही मांस से तुम्हें बेचैनी होने लगती है; घंटी जुड़ गई रोटी से। शास्त्र सुने, गुरुओं के वचन सुने; जिस परिवार में रहे, वे सभी नाक-भौं सिकोड़ते हैं जैसे ही मांस का शब्द आ जाए। अगर जैन परिवार के बूढ़े लोग भोजन कर रहे हों और तुम मांस शब्द का नाम ले दो तो वे भोजन बंद कर देंगे। बहुत दिनों तक जैनी टमाटर नहीं खाते थे, क्योंकि वह मांस जैसा दिखाई पड़ता है। कटहल नहीं खाते, क्योंकि उसे काटने से खून जैसा निकलता हुआ मालूम पड़ता है। प्रतीक! तो अगर तुम जैन घर में बड़े हुए हो तो शाकाहार तुम्हारी आदत है। और अगर कोई मांस तुम्हारे सामने ले आएगा, तुम्हें उलटी होने लगेगी, नासिया मालूम होगा, सारा पेट खड़बड़ हो जाएगा। लेकिन इससे तुम यह मत समझना कि तुम महावीर हो जाओगे। यह आदत है; यह तुम कनफ्यूशियस के अनुयायी हो, महावीर के नहीं। यह आदत है; तुम पावलफ के अनुयायी हो। तुम्हारे साथ वही किया गया है जो पावलफ ने कुत्ते के साथ कियाः भोजन और घंटी। इस आदत को तुम आचरण अगर समझ लिए तो तुमने अपना जीवन गंवा दिया।
शाकाहार तो उस शुद्ध चैतन्य से पैदा होता है, जहां तुम इतने प्रेम से भर जाते हो कि जहां तुम किसी को भी चोट न पहुंचाना चाहोगे। यह भीतर से आता है। वास्तविक आचरण का जन्म अंतस से होता है; झूठे आचरण का जन्म ऊपर के आरोपण से होता है। और यही भेद है। और दोनों एक जैसे दिखाई पड़ सकते हैं। व्यवहार में क्या फर्क करोगे कि कोई आदमी किसलिए मांस नहीं खा रहा है? महावीर भी मांस नहीं खाते, क्योंकि उनके अंतस से हिंसा खो गई। साधारण जैनी भी मांस नहीं खाता; अंतस से हिंसा नहीं खोई है। अंतस में पूरी हिंसा है, क्रोध है, वैमनस्य है, ईर्ष्या है, जलन है, सब है। लेकिन आदत के कारण मांसाहार नहीं करता। लेकिन और-और ढंग से मांसाहार करेगा। कहीं न कहीं वह भी चिल्ला कर कहेगा कि किसी को खाली प्लेट तो नहीं चाहिए! और-और रास्ते खोजेगा। किसी और ढंग से लोगों को सताएगा।
. मांस नहीं खा सकेगा, खून नहीं पी सकेगातो शोषण करेगा। क्योंकि धन भी खून है। वह प्रतीक है खून का, वह समाज का खून है। और जैसे खून बहता है शरीर में और आदमी स्वस्थ रहता है, वैसा धन घूमता रहे समाज में तो समाज स्वस्थ रहता है। धन रुक जाए, तो जैसे खून रुक जाए, आदमी मर जाए, वैसे समाज मर जाता है। लेकिन जैनियों ने जगह-जगह धन रोक लिया। वे अकारण ही धनवान नहीं हो गए हैं। उनके धनवान होने का कुल कारण इतना है कि जो भी उनकी मांसाहार और खून पीने की वृत्ति थी, वह एक आदत से रोक दी गई है। उसको वे दूसरे रास्ते से खींच रहे हैं, दूसरे रास्ते से इकट्ठा कर रहे हैं। उन्होंने एक सब्स्टीट्यूट, एक परिपूरक मार्ग खोज लिया।
मन को बदलना इतना आसान नहीं है कि ऊपर से बदला जा सके। स्कीनर, पावलफ, कनफ्यूशियस आदमी को बदल नहीं सकते, आदमी को ढोंगी बना सकते हैं, झूठा बना सकते हैं। समाज के लिए काफी है, क्योंकि समाज को कोई लेना-देना भी नहीं कि तुम्हारी आत्मा से आ रहा है या नहीं। इतना काफी है कि तुम डर के मारे भी न करो तो काफी है। पुरस्कार के लिए करो तो भी काफी है। समाज इतना ही चाहता है कि तुम्हारा व्यवहार ठीक हो। व्यवहार कहां से पैदा हुआ, इससे समाज को कोई प्रयोजन नहीं है।
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