________________
ताओ या धर्म पारतिक है
मांगना मत। घर में मांगते हो, वह एक बात। कोई चीज पसंद भी पड़े तो अपने पर नियंत्रण रखना और चुप रहना। जितना मिले उतने में राजी रहना। संयोग की बात, काफी लोग थे भोज में और लोग गपशप में लगे थे, छोटे से बच्चे को लोग भूल ही गए। उसके हाथ में प्लेट तो दे दी गई, आइसक्रीम बांटी जा रही थी, लेकिन लोग उसे भूल ही गए।
वह थोड़ी देर तो प्लेट लिए बैठा रहा। अब सोच सकते हो, एक छोटा बच्चा, आइसक्रीम बंटती हो और प्लेट लिए खाली बैठा हो। काफी दमन करना पड़ा होगा। फिर उसे जब आशा छूट गई, लगा कि अब तो आइसक्रीम दूर भी चली गई और अब कोई लौट कर आने का उपाय नहीं है, लोग बातचीत में लगे हैं, उसका किसी को खयाल ही नहीं है; मौका पाकर जब उसने देखा कि एकाध-दो क्षण को सन्नाटा था, लोग आइसक्रीम खाने में लग गए, तो उसने खड़े होकर जोर से कहा कि किसी को खाली प्लेट तो नहीं चाहिए! खाली प्लेट ऊपर उठा कर। तब लोगों को पता चला कि उसको आइसक्रीम नहीं मिली।
छोटे बच्चे भी रास्ता तो निकाल ही लेंगे। तो बड़ों का तो क्या कहना? न मांगेंगे आइसक्रीम तो खाली प्लेट बता देंगे। पीछे से कोई द्वार खोलना पड़ेगा। आगे एक झूठा चेहरा और जीवन का पीछे का एक द्वार। करो कुछ, कहो कुछ, बताओ कुछ। जीवन खंड-खंड कर लो; इकट्ठे न रह जाओ।
सारे दंड और सारे पुरस्कार का परिणाम इतना हुआ है कि कुछ लोग पापी हो गए हैं, अपराधी, और कुछ लोग पाखंडी हो गए हैं। पाखंडियों को तुम नैतिक कहते हो। पाखंडी का कुल मतलब इतना है कि कर तो वह भी वही रहा है जो दूसरे कर रहे हैं, लेकिन कुशलता से कर रहा है। वह ज्यादा चालाक है। निक्सन पकड़ लिया गया, इससे तुम यह मत सोचना कि तुम्हारे दूसरे राजनीतिज्ञ, दूसरे मुल्कों के, वही नहीं कर रहे हैं जो निक्सन ने किया। करीब-करीब सभी राजनीतिज्ञ वही करते हैं। निक्सन थोड़ा ज्यादा आत्मविश्वास में फंस गया। अपने ही हाथ से फंस गया कि वह जो भी बोलता था वह उसने टेप करवा लिया। बोलते तो सभी राजनीतिज्ञ यही हैं।
तुम अगर उनकी अंतरंग वार्ता सुनो तो बड़े हैरान होओगे। वह बिलकुल सड़क-छाप है; वह बातचीत, जो सड़क के किनारे बैठे हुए लोग करते हैं, उससे भी बेहूदी है। होगी ही। क्योंकि एक-दूसरे की जड़ें काटने की ही तो सारी बात है। ऊपर से मिलते हैं तो मुस्कुराते हैं, और भीतर एक-दूसरे को काट रहे हैं। और ऐसा नहीं कि विरोधी ही काट रहे हैं, जो अपने हैं वे भी काट रहे हैं। क्योंकि राजनीति में सभी एक-दूसरे के विरोधी हैं। अपना तो कोई है ही नहीं वहां। अपना तो राजनीति में कोई हो ही नहीं सकता। क्योंकि जहां पूरी दौड़ प्रतिस्पर्धा की हो वहां कोई जयप्रकाश ही इंदिरा के खिलाफ नहीं होते, चव्हाण भी भीतर से वही करते हैं। कोई बाहर से विरोधी है, कोई भीतर से विरोधी है; कोई भेद नहीं है। कुछ शत्रु हैं जो मित्र की तरह खड़े हैं और कुछ शत्रु हैं जो शत्रु की तरह खड़े हैं, बस इतना ही फर्क है। अगर तुम उनकी भीतरी बातें सुनो-जैसा मुझे सुनने का मौका मिला है तो तुम चकित होओगे। वे साधारण आदमी से गए-बीते हैं।
लेकिन तुम उनके पब्लिक चेहरे से परिचित हो; सार्वजनिक उनका जो मुखौटा है, जब वे सभा के मंच पर आते हैं, उससे तुम परिचित हो। तब वे लोकोद्धारक हैं, सर्वोदयी हैं, तब वे जनता के कल्याण के लिए हैं। और ये सब थोथे शब्द हैं, और इनके पीछे सिवाय पद की आकांक्षा के और शक्ति की लोलुपता के कुछ भी नहीं है। और शक्ति की लोलुपता इस जगत में बड़ी अंधी दौड़ है। वह न अपने को जानती है, न पराए को जानती है। क्योंकि शक्ति की लोलुपता महा हिंसा है। ये सब बातें हैं। पांच साल पहले इंदिरा समाजवाद की बात कहती थी; वह खो गई। अभी जयप्रकाश कहते हैं। उनको बिठा दो पद पर, ऐसे ही खो जाएगी। पद मिलते ही सब खो जाता है। क्योंकि सब बातें पद पाने के लिए थीं। और पद पाने के बाद असली चेहरा प्रकट होना शुरू होता है। क्योंकि शक्ति मिल जाने के बाद तुम वह करना चाहोगे जो तुम छिपाए थे और सदा करना चाहते थे।