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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ 58 नास्तिक भी नैतिक हो सकता है। सच तो यह है कि नास्तिक के पास नैतिक होने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। वह उसकी ऊंची से ऊंची दशा है। नास्तिक भी नैतिक हो सके तो फिर आस्तिक होने में सार क्या है ? आस्तिक का सार उस सदगुण में है जो नीति के पार है। आस्तिकता समाज के पार ले जाती है । समाज सब कुछ नहीं है। तुम्हारे संबंधों का जाल सब कुछ नहीं है। सच तो यह है, संबंधों का जाल बाहर-बाहर है; समाज बाहर है, तुम्हारे भीतर नहीं । तुम्हारे भीतर तो तुम ही हो – अपनी प्रगाढ़ता में, नीरव निबिड़ता में, शून्य में । भीतर की परम सत्ता में तुम्हारे प्रकाश के अतिरिक्त वहां कुछ भी नहीं है। वहां न मित्र हैं, न प्रियजन हैं, न सगे-संबंधी हैं। वहां बाहर की कोई रेखा भी नहीं पहुंचती, कोई धुन भी नहीं पहुंचती, कोई आवाज भी भीतर सुनी नहीं जाती। वहां तो तुम बिलकुल अकेले हो । कबीर ने कहा है, एक-एक जिन जानिया । जिन्होंने भी जाना उन्होंने एक होकर जाना, भीतर अकेले होकर जाना । उनका अकेलापन बड़ी रोशनी से भरा है। तुम कभी अकेले भी होते हो तो तुम्हारा अकेलापन बड़ी उदासी से भर जाता है। क्योंकि अकेला होना तुम जानते ही नहीं। दो तरह के अकेलेपन हैं। दो शब्द याद रखो : एक शब्द है एकांत और एक शब्द है एकाकीपन। एकांत का अर्थ है अलोनस । एकांत बड़ा विधायक, पाजिटिव शब्द है। उसका अर्थ है: अपने होने के रस में निमग्न, जहां दूसरे की याद भी नहीं, जहां दूसरे का अभाव खलता नहीं, जहां दूसरा है भी इसका भी पता नहीं। जहां अपना होना इतना विस्तीर्ण है, इतना गहरा है कि चुकता नहीं; जहां अपने ही रस में तुम डूबे हो; जहां अपने में ही निमग्न हो, अपने में ही लीन हो । और यह होने की दशा बड़ी पाजिटिव, विधायक है; क्योंकि दूसरे का न कोई पता है, न कोई स्मृति है, न दूसरे का अभाव खलता है। अपना होने का भाव इतने आनंद से भर रहा है— एकांत, अलोननेस । और तब एक दूसरी दशा है : लोनलीनेस, एकाकीपन । वह नकारात्मक है, निगेटिव है। तब भी तुम अकेले हो, लेकिन अकेले होने में कोई रस नहीं है; तुम अपने में डूबे नहीं हो; दूसरे की याद सता रही है, दूसरे की कमी खल रही है। नजर दूसरे पर लगी है कि दूसरा नहीं है। वह पत्नी हो, मित्र हो, प्रेयसी हो, कोई भी हो; लेकिन दूसरे. की मौजूदगी का अभाव एकाकीपन है। और अपनी मौजूदगी का भाव एकांत है। और जब तक तुमने एकांत नहीं जाना तब तक तुम लाओत्से को न समझ पाओगे। तुमने एकाकीपन तो बहुत बार जाना है, वह खालीपन की बात है। मन अपने को कहीं उलझा लेना चाहता है। तो तुम अखबार पढ़ने लगते हो, रेडियो खोल देते हो, टेलीविजन देखने लगते हो, सिनेमा चले जाते हो, क्लब पहुंच जाते हो, होटल में जाकर बैठ जाते हो। दूसरे की मौजूदगी तुम्हें बाहर उलझाए रखती है। और जब भी दूसरे की मौजूदगी नहीं होती, तुम्हें लगता है, अब क्या जीवन में सार? तुमने अपना सार कभी जाना नहीं; तुम्हारा सारा सार दूसरे से जुड़ा है। तुम्हारे होने के सब ढंग में दूसरा हमेशा मौजूद रहा है। तुमने अकेले का रस नहीं जाना; तुमने कभी अपने को पीया नहीं। तुमने और सब तरह की शराब जानी, लेकिन वह सब शराब दूसरे से आती है। तुमने एक शराब नहीं जानी जो अपने ही भीतर निर्मित होती है, जो स्वयं के होने में ही छिपी है। और जो उसमें बेहोश हो जाता है वह सदा के लिए होश से भर जाता है। एकांत को तुम जानोगे तो ही तुम धर्म को जानोगे । और एकांत तक जिसे पहुंचना हो उसे द्वंद्व पैदा करने वाली सभी धारणाओं को छोड़ देना जरूरी है। और तुम्हारे शुभ-अशुभ की धारणाएं भी द्वंद्व पैदा करती हैं। किसी की तुम निंदा करते हो; किसी की तुम प्रशंसा करते हो; किसी की तुम पूजा करते हो; किसी का तुम अपमान करते हो । तुम्हारी धारणा - क्या ठीक है, क्या गलत है; यह ठीक है, यह गलत है—तुम्हें बांटे रखती है। भीतर जाना हो तो अनबंटा होना पड़ेगा। अनबंटा होना सदगुण है। वह सदगुण की श्रद्धा है।
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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