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. ताओ या धर्म पारबतिक है
अच्छा तो अच्छा है ही, बुरे को भी उठाना है। जो खड़ा है उसको सम्हालने की क्या जरूरत, जो गिर गया है उसको सम्हालना है। जो स्वस्थ है उसको औषधि की क्या मांग, जो अस्वस्थ है उसे औषधि देनी है। तो भला तो अगर नरक में भी चला जाए तो कोई हर्ज नहीं, क्योंकि वह अपना स्वर्ग अपने साथ लिए है, बना लेगा वहां भी; बुरे को तो स्वर्ग में ले जाना ही होगा, अपने हाथ से तो वह नरक चला जाएगा।
तो लाओत्से कहते हैं, सदगुण की श्रद्धा क्या है? सदगुण की श्रद्धा अशुभ में भी शुभ को देखने की क्षमता। अशुभ में भी छिपे शुभ के दर्शन। अंधेरी रात में भी जो सुबह को देख ले, वही सदगुण की श्रद्धा है।
सुबह तो, सुबह के सूरज को तो फिर अंधा भी पहचान लेता है, आंखों की कोई गरिमा नहीं। सुबह का उत्ताप तो अंधे को भी मालूम पड़ने लगता है; वह भी कह देता है, सूरज उग गया। रात के घने अंधेरे में, जब सूरज की एक किरण भी नहीं रहती, जब कोई भी प्रमाण नहीं रह जाता सूरज का, जब सब तरफ से सूरज विलीन हो जाता है, तब भी जो सुबह को जानता है, पहचानता है, जो सुबह की आशा और भरोसे से भरा है, उसी के पास आंख है देखने वाली।
इसी को लाओत्से सदगुण की श्रद्धा कहता है। पापी में भी पुण्यात्मा के दर्शन, अंधेरी रात में सुबह के दर्शन हैं। बुरे में भले को देख लेना, कांटे में भी छिपे हुए फूल के रस को पहचान लेना है। तब तुम सभी को आशीर्वाद दे सकते हो। तब तुम्हारे मन से निंदा विलीन हो जाती है। जब तक निंदा है, तब तक सदगुण नहीं। जब प्रशंसा बेशर्त है, जब तुम कोई शर्त नहीं लगाते कि मैं इसलिए प्रशंसा करूंगा। जब तुम्हारी प्रशंसा मनुष्य के होने मात्र में काफी है। तुम हो इतना ही क्या कम है! बुरे हो या भले हो, ये गौण बातें हैं; चोर हो कि साधु हो, ईमानदार हो कि बेईमान हो, ये तो ऊपर-ऊपर व्यवहार की बातें हैं। इससे तुम्हारी आत्मा का क्या लेना-देना?
तुम्हारे कृत्य तुम्हारी परिधि से ज्यादा नहीं हैं। जैसे सागर की छाती पर लहरें हैं, लेकिन सागर की गहराई में कहां लहरें हैं? ऐसे ही तुम्हारी ऊपर की सतह पर लहरें हैं। अपराध की लहर तुम्हें अपराधी नहीं बनाती। लहर तो ऊपर ही घूमती है, खो जाती है; बनती है, मिट जाती है। तुम भीतर तो अछूते रह जाते हो। लहर तो हवा का झोंका है, तुम नहीं। कृत्य तुम्हारा बुरा भी हो या भला हो, इससे तुम्हारे अस्तित्व का कोई भी लेना-देना नहीं है। तुम्हें पता न हो, तुम भी सोचते होओ कि मैं अपराधी हूं, बुरा हूं, लेकिन जिसके पास आंखें हैं उसे तो दिखाई पड़ता है। तुम भला संत के पास इसलिए जाओ कि मैं पापी हूं, उसके पास जाऊंगा तो शायद पुण्य की तरफ मुझे भी स्वाद लग जाए, तुम चाहे अपनी आत्मनिंदा से भरे होओ, लेकिन संत तो तुम्हारे भीतर उगते हुए सूरज को ही देखता है। संत तो तुम्हारी संभावना को देखता है, तुम्हारे भविष्य को देखता है। संत तो तुम्हारे केंद्र को देखता है, तुम्हारी परिधि को नहीं।
वही सदगुण है। सदगुण द्वंद्वातीत है। द्वैत से उसका कोई संबंध नहीं; अच्छे-बुरे का विभाजन नहीं करता। क्या है इस बात को कहने का अर्थ कि शुभ में भी शुभ देखता है, अशुभ में भी शुभ देखता है, भले पर श्रद्धा करता है, बुरे पर भी श्रद्धा करता है? इसका मतलब क्या है?
इसका मतलब इतना ही है कि अब भले और बुरे में कोई फासला न रहा। अब भला और बुरा समान हो गए। . अब जहर और अमृत एक जैसे हैं। अब जन्म और मृत्यु बराबर हैं। अब पाना और खोना एक ही बात हो गए। सब द्वंद्व मिट गया, सब द्वैत गिर गया। अद्वैत की धारा जगी है।
अद्वैत सदगुण है। एक को जान लेना सदगुण है। और उस एक को जानना ही धर्म है।
नीति तो दो को मानती है। इसलिए नीति धर्म नहीं है। इसे समझो, क्योंकि नैतिक होने के लिए धार्मिक होना जरूरी भी नहीं है। नास्तिक भी नैतिक हो जाता है। हो सकता है; अक्सर होता है। तुम अगर नैतिक आदमी खोजना चाहो तो जितने तुम्हें माओ और स्टैलिन के देश में मिलेंगे उतने और कहीं नहीं। रूस नास्तिक है, लेकिन अगर तुम नैतिक आदमी खोजना चाहो तो तुम्हें जितने रूस में मिलेंगे उतने कहीं भी नहीं। भारत में तो कभी भी नहीं।
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