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ताओ उपनिषद भाग ५
उस फकीर ने कहा, लेकिन आंखें ठीक करवा कर करना क्या है? क्योंकि जो आंखों से देखा जा सकता था, खूब देख लिया, कुछ पाया नहीं। और जो आंखों के बिना देखा जा सकता है, उसे देख ही रहे हैं और खूब पा रहे हैं।
तो एक तो संसार है जो आंखों से देखा जा सकता है। लेकिन शरीर की आंखें वही देख सकती हैं जो शरीर जैसा है। पदार्थ को देख सकती हैं; पार्थिव को देख सकती हैं। पृथ्वी को देख सकती हैं। और एक वह भी है जो आंख बंद करके देखा जाता है। उसे देखने के लिए इन आंखों की कोई जरूरत नहीं है। उसे देखने के लिए आंख की ही जरूरत नहीं है। उसे तुम्हारा हृदय, उसे तुम्हारी अंतरात्मा देखती है, और जानती है। वह आंख बंद करके भी देख लिया जाता है।
उस फकीर ने ठीक ही कहा कि जो इन आंखों से देखा जा सकता था, खूब देख लिया, कुछ पाया नहीं। और जो इनके बिना देखा जा सकता है, उसे खूब भरपूर देख रहे हैं, और खूब पा रहे हैं। आंखों को ठीक करवाना किसे है? करवा कर आंखें ठीक क्या करेंगे?
'यह कैसे होता है?' __ कैसे भीतर की आंख खुलती है? कैसे अमृत के दर्शन होते हैं? कैसे शरीर के पार तुम हो जाते हो, जहां मृत्यु नहीं पहुंचती, जहां शस्त्र नहीं छेदते, जहां आग नहीं जलाती, कैसे? जहां तुम बूढ़े नहीं होते, जहां जराजीर्णता नहीं आती?
कहता है लाओत्से, यह होता है मृत्यु के परे होकर। 'क्योंकि वह मृत्यु के परे है। बिकाज ही इज़ बियांड डेथ।'
जैसे ही तुम जान लेते हो कि तुम मृत्यु के परे हो...। और तुम हो ही, इसलिए जानने में तुम देर कितनी ही लगाओ, कठिनाई कुछ भी नहीं है। टालो तुम कितना ही जानने को, जिस दिन जानना चाहोगे उसी दिन जान लोगे। आंख भर बंद करने की बात है। अपने को ही देखना है। कहीं जाना भी नहीं है; कोई यात्रा भी नहीं करनी है। कोई शर्त भी नहीं पूरी करनी है। किसी और से सौदा भी नहीं है, कोई कीमत भी नहीं चुकानी है। बस आंख बंद करनी है। . थोड़ा तृष्णा को शिथिल करना है, ताकि दौड़ बंद हो।
दौड़ चलती रहे तो अपने घर कैसे आओगे? दौड़ चलती रहे तो तुम कहीं और, कहीं और। यह और की जो भीतर चल रही सतत धारा है, इसे थोड़ा कम करना है, ताकि तुम शांत बैठ सको। बैठते हो तुम ध्यान में, तब हजार विचार चलते हैं। मन दौड़ा ही रहता है, शरीर ही बैठा रहता है। शरीर को बिठाने से क्या होगा? वह जो दौड़ा हुआ मन है, वह बैठना चाहिए। वह बैठ जाए, तत्क्षण दर्शन हो जाएं। इधर मन बैठा, उधर आत्मा प्रकट हुई। और वह आत्मा अमृत है। वह न तो जीवन है, न वह मृत्यु है; वह दोनों के पार है। जब बिलकुल जीवन नहीं था तब भी वह थी। और जब सारा जीवन खो जाएगा तब भी वह होगी। वह शाश्वतता है।
उस आत्मा को ही हम सत्य कहते हैं। सत्य का अर्थ होता है : जो शाश्वत है, जो सदा है, सदा था, सदा रहेगा। जिसके होने में कभी भी कोई भेद नहीं पड़ता; सब बदल जाए, पूरी सृष्टि प्रलय में चली जाए, नई सृष्टि हो जाए, लेकिन वह रहेगा वैसा ही जैसा था, उसके स्वभाव में रंच मात्र फर्क न आए, वही सत्य है। वैसे सत्य को तुम अपने भीतर लिए चल रहे हो।
तुम्हें परमात्मा ने सभी कुछ दिया है। लेकिन जो संपदा तुम्हारे पास है, उसको भी तुम नहीं देख पा रहे हो। दौड़ के कारण तुम बैठ नहीं पाते। वासना के कारण तुम शांत नहीं हो पाते। और के मंत्र के कारण राम का मंत्र नहीं जप पाते। इसे देखो, इसे पहचानो, इसे अपने भीतर विश्लेषण करो। क्योंकि लाओत्से के वचन किसी दार्शनिक के वचन नहीं हैं। लाओत्से के वचन एक ज्ञानी के वचन हैं—एक परम ज्ञानी के। और वह तुमसे जो भी कह रहा है, वह
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