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जीवन और मृत्यु के पान
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उनसे ध्यान करने को कहा। उन्होंने मेहनत की। तीन सप्ताह बाद वह आए और कहने लगे कि ठीक है, नींद तो आ गई, लेकिन और कुछ नहीं हुआ । मैंने कहा कि अब आप रुकें। आप भूल गए कि तीन सप्ताह पहले आपने कहा था, यह जीवन-मरण का सवाल है। और आप कहते हुए आए थे कि मुझे सिर्फ नींद चाहिए, और कुछ नहीं चाहिए। और जब नींद आ गई तो आप कह रहे हैं कि और कुछ भी नहीं हुआ; बस नींद आ गई ।
जो नींद वर्षों से नहीं आई थी, जो दवाओं से नहीं आई थी, वह आ गई, लेकिन उनके मन में धन्यवाद नहीं है। मैंने टेप लगवाया । सुना, कहने लगे कि हां, ठीक है। थोड़े चौंके, कहने लगे कि नहीं, ऐसी बात नहीं। मेरा मतलब यह था कि जब ध्यान से इतना हो सकता है तो और भी हो सकता है। पर मैंने कहा कि अब आप सोच लें, क्योंकि जैसे आप आदमी हैं, अगर आपको परमात्मा भी मिल जाए तो आप लौट कर कहेंगे, परमात्मा मिल गया, और कुछ नहीं हुआ। मोक्ष मिल जाए, आप कहेंगे, अब ? मोक्ष मिल गया, और कुछ भी न हुआ ।
और इस तरह के आदमी को मोक्ष नहीं मिल सकता। और यह नींद भी ज्यादा देर न टिकेगी। यह खो जाएगी। क्योंकि आपको नींद लेने की भी पात्रता नहीं है। क्यों गांव-देहात का गरीब आदमी, जिसे एक जून रोटी मिलती है, कभी वह भी नहीं मिलती, गहरी नींद सोता है? क्यों शहर का धनी, सुखी आदमी, जिसके पास सब है, एक झपकी नहीं ले पाता? होना तो उलटा चाहिए कि जिसके पास कुछ नहीं है वह चिंता में सो न सके, और जिसके पास सब है निश्चित होकर सो जाए। ऐसा होता नहीं ।
कारण कहीं और है। वह जो गांव का गरीब आदमी है उसके मन में शिकायत नहीं है। जो है, वह उससे भी तृप्त है। एक जून रोटी मिल गई, वह भी क्या कम है ! हो सकता था, वह भी न मिले। वह एक जून रोटी के लिए भी धन्यवाद दे रहा है। उस धन्यवाद से ही उसके मन में विश्राम है। वही विश्राम उसकी प्रगाढ़ निद्रा बन जाता है।
भिखमंगों को सोते देख कर सम्राट ईर्ष्या से भर जाते हैं । तुमने रास्ते पर भिखमंगों को सोते देखा होगा । दिन की भरी दुपहरी में बाजार चल रहा है, कारें दौड़ रही हैं, शोरगुल मचा है, भोंपू, सब कुछ हो रहा है — और कोई आदमी वृक्ष के नीचे मजे से सो रहा है। सड़क की पटरी पर सो रहा है, घुर्राटे की आवाजें ले रहा है। और तुम अपने कक्ष में, जहां कोई आवाज नहीं पहुंचती, जहां कोई शोरगुल नहीं होता, सुखद से सुखद शय्या पर पड़े करवटें बदलते रहते हो । सम्राट ईर्ष्या से भर जाते हैं भिखारी को सोया हुआ देख कर। क्या होगा? कारण क्या होगा ?
भिखारी को जो मिल जाता है, उसकी भी उसे अपेक्षा न थी । पक्का न था कि वह भी मिलेगा। कोई गारंटी न थी। मिल जाए मिल जाए, न मिले न मिले। मिल गया तो धन्यवाद, न मिले तो पानी पीकर सो रहना है।
जब तुम्हारी अपेक्षा कम होती है तब तुम विश्राम में होते हो। जब तुम्हारी अपेक्षा ज्यादा हो जाती है तब तुम तनाव से भर जाते हो। और अपेक्षा और प्रार्थना का कभी भी मिलना नहीं होता। और अपेक्षा और परम जीवन के मिलने का कोई उपाय नहीं है।
लाओत्से कहता है कि यह कैसे होता है ? जीवन को विस्तार देने की तीव्र कर्मशीलता के कारण।
तुम दौड़े जा रहे हो — और ज्यादा चाहिए, और ज्यादा चाहिए, और ज्यादा चाहिए। किसी दिन वह तुम्हें मिल भी जाएगा। इस जगत का एक बड़ा चमत्कार यह है कि तुम्हारी नासमझियां भी पूरी हो जाती हैं। और परमात्मा ऐसा परम कृपालु है कि तुम्हारी मूढ़ता को भी आशीष दिए जाता है, आशीर्वाद दिए जाता है। तुम्हारी क्षुद्र और व्यर्थ वासनाएं भी तृप्त करने का आयोजन कर देता है। तब तुम अचानक पाते हो कि सब हाथ में है; खुद को तुम कहीं छोड़ आए, खुद को कहीं दूर अतीत में भटका आए। खुद कहीं छूट गया मार्ग पर, तुम तो मंजिल पर पहुंच गए। सब इकट्ठा हो गया, लेकिन तुम्हारी आत्मा कहीं राह में छूट गई है। और तब तुम्हें फिर कोई बेचैनी पकड़ लेती है। फिर अशांति पकड़ लेती है। तुम सब भी पाकर भिखारी ही रहोगे ।