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________________ जीवन और मृत्यु के पार दूसरे तरह का आदमी है जो और की दौड़ नहीं करता। जो उसे मिला है—जो भी मिला है-वह उससे परितृप्त है, संतुष्ट है। एक गहन परितोष उसे घेरे रहता है। उसके चारों तरफ एक वायुमंडल होता है परम संतोष का। जो भी मिला है वह बहुत है, उसके भीतर एक स्वर होता है। और उसके कारण वह निरंतर धन्यवाद देता है। उसके भीतर अनुग्रह का भाव होता है। वह परमात्मा को कहता रहता है, धन्यवाद तेरा। जो भी तने दिया है, उसकी भी कोई पात्रता मेरी न थी। जो भी तूने दिया है, वह मेरी योग्यता से सदा ज्यादा है। उसके भीतर एक अनुग्रह का नाद होता रहता है। उठते-बैठते-चलते एक परम अहोभाव से भरा रहता है। ये दो ही स्वर के लोग हैं। जिनके भीतर और का नाद है, वे संसारी। और जिनके भीतर अहोभाव का नाद है, वे संन्यासी। कहां तुम रहते हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर तुम्हारे भीतर अहोभाव है तो तुम परम संन्यासी हो। और अगर तुम्हारे भीतर और की ही, और की दौड़ है तो तुम चाहे आश्रम में रहो चाहे हिमालय पर, तुम संसारी रहोगे। तुम अगर अहोभाव से भर जाओ तो स्वर्ग यहीं और अभी है। और तुम और से ही भरे रहो तो तुम जहां भी जाओगे वहीं नरक पाओगे। क्योंकि नरक तुम्हारे भीतर है; स्वर्ग भी तुम्हारे भीतर है। ऐसा हुआ। एक सूफी फकीर ने एक रात सपना देखा। कुछ ही दिन हुए, उसका गुरु मर गया है। सपने में उसने देखा कि वह स्वर्ग गया है और अपने गुरु की तलाश कर रहा है। फिर उसने एक वृक्ष के नीचे अपने गुरु को प्रार्थना करते देखा तो वह बहुत हैरान हुआ कि अब किसलिए प्रार्थना कर रहे हैं? जो पाना था पा लिया, आखिरी मंजिल आ गई। स्वर्ग के ऊपर तो कुछ है भी नहीं। अब किसलिए प्रार्थना कर रहे हैं? लेकिन गुरु प्रार्थना में था तो वह रुका रहा। एक देवदूत गुजरता था। उसने पूछा कि मैं बड़ा हैरान हूं! मैं तो सोचता था, पृथ्वी पर लोग प्रार्थना करते हैं स्वर्ग जाने के लिए। इसलिए हम भी छाती पीटते हैं और प्रार्थना करते हैं, सिर झुकाते हैं। मेरा गुरु तो स्वर्ग पहुंच गया। और यह ऐसा तन्मय बैठा है, ऐसा मगन होकर प्रार्थना कर रहा है। अब किसलिए? अब क्या पाने को है? मैं तो जानता था, सोचता था कि स्वर्ग में कोई प्रार्थना न होती होगी। उस देवदूत ने कहा, स्वर्ग में कोई प्रार्थना नहीं होती; प्रार्थना में ही स्वर्ग होता है। जिस क्षण इसकी प्रार्थना चूक जाएगी उसी क्षण स्वर्ग खो जाएगा। प्रार्थना स्वर्ग का द्वार नहीं है, प्रार्थना स्वर्ग है। प्रार्थना मार्ग नहीं है, प्रार्थना मंजिल है। प्रार्थना साधन नहीं है, साध्य है। वह कोई साधक की अवस्था नहीं है, सिद्ध का अहोभाव है। लेकिन अहोभाव तो तभी होगा, जब और से छुटकारा हो जाए। इसलिए यह समझ लेना जरूरी है कि जो आदमी कह रहा है और चाहिए, और चाहिए, और चाहिए, वह धन्यवाद नहीं दे सकता; वह शिकायत कर सकता है। क्योंकि वह हमेशा परेशान है, हमेशा कम है। अहोभाव कैसा? प्रार्थना कैसी? पूजा कैसी? अर्चना कैसी? धन्यवाद किसको? जो आदमी और-और की मांग कर रहा है वह परमात्मा के प्रति शिकायत से ही भरा रहेगा। उसके पूरे प्राणों में शिकायत का कांटा रहेगा, पीड़ा की तरह चुभता रहेगा, दंश देता रहेगा। मंदिर शिकायत लेकर मत जाना। क्योंकि जो शिकायत लेकर गया वह मंदिर कभी पहुंचता ही नहीं। शिकायत लेकर परमात्मा के पास जाने की कोशिश मत करना, क्योंकि शिकायत परमात्मा से दूर ले जाने की व्यवस्था है। मांगने उसके द्वार पर जाना मत, क्योंकि मांगने का अर्थ ही है कि अभी धन्यवाद देने का क्षण नहीं आया, अभी और चाहिए। लाओत्से कहता है, यह कैसे होता है कि तुम्हारे जीवन में ही मौत पनप जाती है। यह ऐसे होता है कि तुम और-और-और मांगते चले जाते हो। 'बिकाज ऑफ दि इनटेंस एक्टिविटी ऑफ मल्टीप्लाइंग लाइफ।' तुम और ज्यादा करना चाहते हो, और ज्यादा करना चाहते हो। कितना ही मिल जाए, तृप्ति नहीं होती। 43
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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