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ताओ उपनिषद भाग ५
तो आज तो हालत ऐसी है कि अमरीका में होटलें हैं जिनमें तेरह नंबर का कमरा नहीं होता; तेरह नंबर की मंजिल भी नहीं होती। क्योंकि कोई ठहरने को तेरह नंबर की मंजिल पर राजी नहीं है। तो बारह के बाद चौदह नंबर होता है। क्योंकि तेरह शब्द से ही घबड़ाहट पैदा होती है। तेरह नंबर का कमरा नहीं होता; बारह नंबर के कमरे के बाद चौदह नंबर का आता है। होता तो वह तेरहवां ही है, लेकिन जो ठहरता है उसको नंबर चौदह याद रहता है; तेरह की उसे चिंता नहीं पकड़ती। इसका जन्म हुआ चीन में, और बड़े अर्थपूर्ण कारण से यह विश्वास फैला। ये तेरह ही अपशकुन हैं। तुम चौदहवें हो। और तुम्हें चौदहवें का कोई भी पता नहीं। तुम न जीवन हो, न मौत; तुम दोनों के पार हो। अगर तुम इन तेरह के प्रति सजग हो जाओगे, जैसे-जैसे तुम जागोगे वैसे-वैसे शरीर दूर होता जाएगा। जैसे-जैसे तुम्हारा होश बढ़ेगा वैसे-वैसे शरीर से तुम्हारा फासला बढ़ेगा। तुम देख पाओगे, मैं पृथक हूं, मैं अन्य हूं। शरीर
और, मैं और। और यह जो भीतर भिन्नता, शरीर से अलग चैतन्य का आविर्भाव होगा, इसकी न कोई मृत्यु है, न इसका कोई जीवन है। न यह कभी पैदा हुआ, न कभी यह मरेगा।
एक सयानी आपनी, फिर बहुरि न मरना होय। जिसने इसको जान कर जो मरा, वह सयाना, वह ज्ञानी। उसने जाना। जो इसको बिना जाने मर गए, उनकी मौत सम्यक नहीं। वे यूं ही मर गए। वे व्यर्थ ही जीए और व्यर्थ ही मर गए। अकारण ही दौड़-धूप हुई, बहुत चले, पहुंचे कहीं नहीं। बहुत खोजा, पाया कुछ भी नहीं; खोजने में सिर्फ अपने को गंवाया। अंत में जब वे जाते हैं, उनके हाथ खाली होंगे। जीसस ने कहा है, खाली हाथ तुम आते हो और खाली हाथ मैं तुम्हें जाते देख रहा हूं। और जीसस राजी थे कि तुम्हारे हाथ भर दें। लेकिन तुम सोचते हो कि तुम्हारे हाथ पहले से ही भरे हैं। खाली हों तो भर दिए जाएं। तुम कंकड़-पत्थरों से हाथ भरे हो। और अगर जीसस या लाओत्से हीरे-जवाहरातों से तुम्हारे हाथ भरना चाहें तो तुम कहते हो, हाथ खाली कहां हैं! तुम कंकड़-पत्थर जुटा रहे हो। तुम व्यर्थ का कूड़ा-कर्कट इकट्ठा कर रहे हो। वह सब भी तुम्हारे साथ जल जाएगा। तुम्हारी सारी संपदा तुम्हारी विपदा ही सिद्ध होती है। तुम उससे परेशान ही होते हो; तुम उससे कुछ शांति और चैन और आनंद अनुभव नहीं करते।
'यह कैसे होता है?' यह जीवन में मृत्यु का आविर्भाव, यह जीने के रास्ते पर मौत की घटना, यह कैसे घटती है? 'जीवन को विस्तार देने की तीव्र कर्मशीलता के कारण।'
अगर तुम अपने भीतर पाओगे...तो मैंने दो ही तरह के लोग देखे। एक, जिनके भीतर और-और-और का मंत्रपाठ चलता है। जो भी है, उससे ज्यादा होना चाहिए। जो भी है, उससे उनकी कोई तृप्ति नहीं। उनके भीतर एक ही स्वर बजता है, एक ही संगीत वे पहचानते हैं : और-और। करोड़ रुपए हों तो भी और, कौड़ी हो तो भी और। कुछ भी न हो तो भी और, साम्राज्य हो तो भी और। उनका मुंह, उनके प्राण अभाव से भरे रहते हैं। जो भी है वह बढ़ना चाहिए।
लाओत्से कहता है, इसी कारण वे, जो जीवन और मृत्यु के पार तत्व है, उससे वंचित रह जाते हैं। जीवन और की दौड़ है, और मौत इसी और की दौड़ का अंत। अगर तुम इस दौड़ में रुक जाओ, उसी क्षण मौत भी रुक गई। फिर बहुरि न मरना होय। फिर दुबारा मरना नहीं होता।
तुम अपने भीतर खोजो, चौबीस घंटे क्या पाठ चल रहा है? कौन सा मंत्र तुम्हारे भीतर काम कर रहा है? तो तुम पाओगे, रोएं-रोएं में, श्वास-श्वास में एक ही आकांक्षा है : जो भी है और बड़ा हो जाए।
करोगे क्या इसे बड़ा करके? अगर तुम्हें रहना ही नहीं आता तो मकान छोटा हो तो भी तुम बेचैन रहोगे, मकान बड़ा हो तो भी तुम बेचैन रहोगे। अगर तुम्हें सोना ही नहीं आता तो तुम गरीब के बिस्तर पर सोओ कि अमीर के राजभवन में, क्या फर्क पड़ेगा? अगर तुम्हें भोजन करना ही नहीं आता तो तुम रूखी रोटी खाओ कि श्रेष्ठतम सुस्वादु भोजन, क्या फर्क पड़ेगा?
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