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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ कबीर कहते हैं, धोखा कासूं कहिए! किससे कहने जाएं? कौन धोखा दे रहा है? तुम खुद ही अपने को धोखा दे रहे हो। कोई दूसरा देता होता तो शायद बच भी जाते; तुम खुद ही दे रहे हो, इसलिए बचाव का भी उपाय नहीं है। निहत्थे। अपने को ही वंचना में डाले हुए हो। जो भी तुम इकट्ठा कर रहे हो, वह मौत छीन लेगी। अगर मौत दिखाई पड़ जाए तो संग्रह की वृत्ति खो जाएगी। जिनसे तुम संबंध, नाते-रिश्ते बना रहे हो, मौत तोड़ देगी। अगर मौत दिख जाए तो आसक्ति, संबंध आज ही टूट गया। इसे तोड़ना न पड़ेगा। मौत का बोध तोड़ देगा। तुम अनासक्त हो जाओगे। यह शरीर मौत तो छीन लेगी। यह जलेगा धू-धू करके मरघट पर, या सड़ेगा किसी कब्र में। अगर मौत की प्रतीति हो जाए तो इस शरीर से जो भी तादात्म्य है, जो भी लगाव है, वह आज ही जा चुका; तुम आज ही मर गए। ज्ञानी मौत को जानते ही अपने को मुर्दा मान लेता है। अज्ञानी कहता है, अभी जल्दी क्या; आएगी तब देख लेंगे। अज्ञानी कहता है, जब आग लगेगी तब कुआं खोद लेंगे। ज्ञानी कहता है, अगर आग लगने ही वाली है तो कुआं तैयार होना चाहिए, आज ही कुआं खोद लो। क्योंकि कौन खोद पाएगा कुआं जब आग ही लग जाएगी? जब . घर जल रहा होगा तब तुम कुआं खोदोगे पानी निकालने को आग बुझाने को? तुम टाल रहे हो मौत को। आग तो लगेगी, तुम्हें पता है; कुआं तुम नहीं खोद रहे हो। आग बुझाने का तुम्हारे पास कोई उपाय नहीं। और सच तो यह है कि आग तो लगेगी, यह भी तुम्हें पता है, और घर में तुम घी के पीपे इकट्ठे कर रहे हो, कि जब आग लगेगी तो बुझाना भी असंभव हो जाएगा। तुम जीवन में जो भी इकट्ठा करते हो, वह अग्नि में घृत का काम कर रहा है। __ लाओत्से कहता है, 'जीवन से ही निकल कर मृत्यु आती है।' तुम्हारे भीतर ही बड़ी होती है। मृत्यु तुम्हारी ही संतान है। जैसे मां के गर्भ में बच्चा बड़ा होता है, और मां से - निकल कर बाहर आता है, ऐसे ही तुम्हारी मौत–हरेक की मौत-तुम्हारे भीतर ही बड़ी होती है; तुम्हारे भीतर से ही. निकल कर बाहर आती है। कोई यमदूत नहीं है, कोई भैंसों पर सवार होकर यम नहीं आता; कोई मृत्यु का देवता नहीं है जो मृत्यु को भेजता हो। जीवन ही मृत्यु का देवता है। और तुम पर ही मौत सवार है; तुम ही वह भैंसे हो जिस पर मौत सवार होकर चल रही है। तुम इसे बाहर से आता हुआ न पाओगे। अगर मौत बाहर से आती तो बचने के उपाय हो सकते थे। हम अपने को बंद कर लेते एक ऐसे सुदृढ़ किले के भीतर कि बाहर से कुछ भी न आ सकता। लेकिन तब भी तुम मरोगे। तुम बिलकुल कांच की दीवारों में बंद कर दिए जाओ, जहां से हवा भी न आती हो, तो भी तुम मरोगे। क्योंकि मौत तुम्हारे भीतर बड़ी हो रही है। हां, अगर तुम अपने को भी बाहर छोड़ आओ तो ही तुम न मरोगे। वही ज्ञानी करता है। वह अपने को बाहर छोड़ देता है, खुद भीतर सरक जाता है। मृत्यु तुम्हारे भीतर प्रतिपल बड़ी हो रही है। जाग कर रहना। ऐसा हुआ कि एक यहूदी फकीर एक अंधेरी रात में एक ध्यान की साधना कर रहा था। वह साधना थी चलते हुए स्मरण रखने की कि मैं हूं। स्मरण खो-खो जाता था। उसी अंधेरी रात में रास्ते पर चलते हुए जब वह साधना कर रहा था, उसने एक आदमी को और टहलते हुए देखा। सोचा, शायद वह भी साधना में लीन है। तो उसने पूछा कि तुम किस बात का स्मरण रख कर भटक रहे हो? तुम क्यों चल रहे हो? क्या है तुम्हारी साधना? उसने कहा, मेरी कोई साधना नहीं है, मैं तो एक अमीर आदमी का वाचमैन हूं, पहरेदार हूं। यह महल है मेरे मालिक का, मैं इसके सामने पहरा देता हूं। रात भर जागा हुआ मुझे एक ही स्मरण रखना होता है-मालिक के दरवाजे का। 40
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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