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________________ जीवन और मृत्यु के पार इसीलिए तुम धर्म को भी टालते हो। क्योंकि जिसने मौत को टाला, उसने धर्म को भी टाला। जिसने मौत को आंख भर कर देखा, वह धर्म को न टाल सकेगा। क्योंकि धर्म मौत के पार जाने का विज्ञान है। तुम बीमारी ही टाल देते हो तो औषधि को टालने में क्या कठिनाई है? इसीलिए तो पशुओं में कोई धर्म नहीं है, वृक्षों में कोई धर्म नहीं है। क्योंकि उन्हें मृत्यु का कोई बोध नहीं है। छोटे बच्चे पैदा होते से धार्मिक नहीं हो सकते; छोटे बच्चे पैदा होते से तो अधार्मिक होंगे ही। क्योंकि वे पौधों जैसे हैं, पशुओं जैसे हैं। उन्हें भी मौत का कोई पता नहीं। सच तो यह है कि जिस दिन बच्चे को पहली दफे मौत का पता चलता है, उसी दिन बचपन समाप्त हो गया, उसी दिन भय प्रविष्ट हो गया, उसी दिन वह पौधों और पशुओं की दुनिया का हिस्सा न रहा। अदम ईदन के बगीचे के बाहर निकाल दिया गया। अब वह बगीचे का हिस्सा नहीं है। जिस दिन बच्चे को पता चल गया कि मौत है उसी दिन वह बूढ़ा हो गया। लेकिन फिर जिंदगी भर हम टालते हैं कि है मौत जरूर, लेकिन अभी नहीं है। अभी नहीं करके हम अपने को सांत्वना देते हैं। फिर हमें यह भी दिखाई पड़ता है : जब भी कोई मरता है कोई दूसरा ही मरता है; हम तो कभी मरते नहीं। कभी यह पड़ोसी मरता है, कभी वह पड़ोसी मरता है। तो मन में हम एक भ्रांति संजोए रखते हैं कि मौत सदा दूसरे की होती है, अपनी नहीं। और अभी बहुत देर है। और आदमी के मन की क्षमता इतनी नहीं है कि वह तीस, चालीस, पचास साल लंबी बात सोच सके। आदमी के मन का प्रकाश छोटे से मिट्टी के दीए का प्रकाश है, बस दो-चार फीट तक पड़ता है; इससे ज्यादा नहीं। चार कदम दिखाई पड़ते हैं, बस। उतना काफी भी है। इसलिए जब भी तुम किसी चीज को बहुत दूर टाल देते हो तो वह न होने के बराबर हो जाती है। जैसे तुमसे कहे कि तुम्हारी मृत्यु अभी होने वाली है, कोई बताए कि अभी तुम मर जाओगे घड़ी भर में, तो तुम्हारा रो-रोध कंप जाएगा। लेकिन कोई कहे कि मरोगे सत्तर साल में; कुछ भी नहीं कंपता। सत्तर साल इतना लंबा फासला है कि तुम्हें करीब-करीब ऐसा लगता है कि सत्तर साल इतने दूर है; अनंतता मालूम होती है। कोई डर की अभी जरूरत नहीं। फिर सत्तर साल हाथ में हैं, हम कुछ उपाय भी कर सकते हैं बचने के। लेकिन अगर अभी ही मौत हो रही हो तो उपाय भी नहीं है करने का समय भी नहीं है। तब तुम कंप जाते हो; तब तुम भयभीत हो जाते हो। लेकिन क्या फर्क है, मौत सत्तर साल बाद घटे कि सात क्षण बाद? मौत घटेगी। अगर मौत घटेगी तो घट ही गई। यही तो बुद्ध ने कहा मुर्दे को देख कर। वह तुम नहीं कहते, इसलिए तुम बुद्ध नहीं हो पाते। बुद्ध ने मुर्दे को देख कर यही तो कहा कि अगर मौत होती ही है और मेरी भी होगी-तो कहा अपने सारथी को, लौटा ले रथ वापस! जाते थे एक युवक महोत्सव में भाग लेने। वर्ष का बड़े से बड़ा उत्सव था। और राजकुमार ही उसका उदघाटन करता था। सारथी से कहा, वापस लौटा ले। अगर मौत होनी ही है और मेरी भी होनी है तो अब मेरे लिए कोई महोत्सव न रहा। अब मेरे जीवन में कोई महोत्सव नहीं है, मौत है। और मुझे मौत से निबटारा करना है। सारथी ने कहा भी कि माना कि मौत है, लेकिन बहुत दूर है। घर रथ लौटा लेने की कोई जरूरत नहीं है। यह महोत्सव तो घड़ी भर का है। मौत बहुत दूर है। सारथी बुद्ध को न समझ पाया। वह सारथी तुम्हारे जैसा रहा होगा। बुद्ध ने कहा, दूर हो कि पास, जो है वह है। पास और दर से क्या फर्क पड़ता है? मैं मरूंगा। और अगर यह सच है तो मैं मर ही गया। अब मुझे उस सत्य तत्व की खोज करनी है जो नहीं मरता। अब जितने भी क्षण मेरे पास बचे हैं, इनको मुझे नियोजित कर देना है उस खोज में जो मृत्यु के पार ले जाती है। अब यह जीवन व्यर्थ हो गया। आश्चर्य है कि तुम मरोगे, रोज तुम लोगों को मरते देखते हो, फिर भी तुम्हारा जीवन व्यर्थ नहीं होता। तुम धोखा देने में कितने कुशल हो! 39
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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