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________________ जि से तुम जीवन की भांति जानते हो वह अपने भीतर मृत्यु को छिपाए है। जीवन ऊपर की ही पर्त है; भीतर मृत्यु मुंह बाए खड़ी है। और अगर तुमने जीवन को सिर्फ जीवन जाना, भीतर छिपी मृत्यु को न पहचाना, तो तुम जीवन को जानने से वंचित ही रह जाओगे। मृत्यु जीवन के विपरीत नहीं है। मृत्यु जीवन की संगी-साथिन है। वे दो नहीं हैं; वे एक ही घटना के दो छोर हैं। जीवन जिसका प्रारंभ है, मृत्यु उसी की परिसमाप्ति है। गंगोत्री और गंगासागर अलग-अलग नहीं। मूलस्रोत ही अंत भी है। जन्म के साथ ही तुमने मरना शुरू कर दिया। इसे अगर न पहचाना, तो जो सत्य है, जो जीवन का यथार्थ है, उससे तुम्हारा कोई भी संबंध न हो पाएगा। अगर तुमने जीवन को जीवन जाना, और मृत्यु को जीवन से पृथक और विपरीत जाना, तो तुम चूक गए। फिर तुम्हें बार-बार भटकना होगा। और तुम उसे भी न पहचान पाओगे जो दोनों के पार है। क्योंकि जब तुम जीवन और मृत्यु को ही न पहचान पाए तो उन दोनों के पार जो है, उसे तुम कैसे पहचान पाओगे? और वही तुम हो। कबीर ने कहा है : मरते-मरते जग मुआ, औरस मरा न कोय।। सारा जग मरते-मरते मर रहा है, लेकिन ठीक रूप से मरना कोई भी नहीं जानता। एक सयानी आपनी, फिर बहुरि न मरना होय। लेकिन कबीर एक सयानी मौत मरा, और फिर दुबारा उसे लौट कर न मरना पड़ा। जो भी ठीक से मरने का राज जान गया, वह जीने का राज भी जान गया। क्योंकि वे दो बातें नहीं हैं। और जानते ही दोनों के पार हो गया। और पार हो जाना ही मुक्ति है। पार हो जाना ही परम सत्य है। न तो तुम जीवन हो और न तुम मृत्यु हो। तुमने अपने को जीवन माना है, इसलिए तुम्हें अपने को मृत्यु भी माननी पड़ेगी। तुमने जीवन के साथ अपना संबंध जोड़ा है तो मृत्यु के साथ संबंध कोई दूसरा क्यों जोड़ेगा? तुम्हें ही जोड़ना पड़ेगा। जब तक तुम जीवन को पकड़ कर आसक्त रहोगे, तब तक मृत्यु भी तुम्हारे भीतर छिपी रहेगी। जिस दिन तुम जीवन को भी फेंक दोगे कूड़े-कर्कट की भांति, उसी दिन मृत्यु भी तुमसे अलग हो जाएगी। तभी तुम्हारी प्रतिमा निखरेगी। तभी तुम अपने पूरे निखार में, अपनी पूरी महिमा में प्रकट होओगे। उसके पहले तुम परिधि पर ही रहोगे। मृत्यु भी परिधि है और जीवन भी। तुम दोनों से भीतर, और दोनों के पार, और दोनों का अतिक्रमण कर जाते हो। यह जो अतिक्रमण कर जाने वाला सूत्र है, इसे चाहो आत्मा कहो, चाहे परमात्मा कहो, चाहे निर्वाण कहो, मोक्ष कहो, जो तुम्हारी मर्जी हो। अलग-अलग ज्ञानियों ने अलग-अलग नाम दिए हैं, लेकिन बात एक ही कही है। सबै सयाने एक मत।
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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