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________________ धारणारहित सत्य और शर्तरहित श्रद्धा संतत्व तुम्हें दिखाई ही पड़ता रहेगा। तब तुम्हें दो तरह के संत होंगेः एक अंगारे की तरह प्रकट, दूसरे राख में दबे हुए। अंगारा चाहे प्रकट हो, चाहे राख में, स्वभाव तो एक ही है। तो कुछ संत जो अंगारे की तरह जाज्वल्यमान हैं, और कुछ संत जिन पर राख जम गई है कृत्यों की। कर्म का ही भेद है, स्वभाव का कोई भेद नहीं है। कहते हैं लाओत्से, 'सज्जन को मैं शुभ करार देता हूं, दुर्जन को भी शुभ करार देता हूं; सदगुण की यही शोभा है।' और जब तक तुम दोनों को शुभ न कह सको, तब तक जानना, सदगुण अवतरित नहीं हुआ। तब तक तुमने सदगुण नहीं जाना। ___ एक फकीर को अस्पताल में भर्ती किया गया। डाक्टर बड़ा हैरान था। वह उसकी बांह पर मलहम-पट्टी कर रहा था और मन में सोच रहा था। आखिर वह न सोच पाया तो उसने पूछा कि मैं जरा चकित हूं! क्योंकि यह जो घाव है, घोड़े का काटा हुआ नहीं हो सकता; क्योंकि छोटा है घाव। यह कुत्ते का काटा भी नहीं हो सकता, क्योंकि यह बड़ा है। यह किस तरह के जानवर का घाव है, मैं समझ ही नहीं पा रहा। उस फकीर ने हंस कर कहा, यह किसी तरह के जानवर का घाव नहीं है; एक सज्जन पुरुष ने काटा है। लेकिन उसने कहा, एक सज्जन पुरुष ने। जिसने काटा है, वह भी सज्जन पुरुष है। कृत्य का बहुत मूल्य नहीं है। भीतर जो छिपा है ! राख का क्या मूल्य है? भीतर जो अंगारा छिपा है। 'ईमानदार का मैं भरोसा करता हूं, और झूठे का भी भरोसा करता हूं; सदगुण की यही श्रद्धा है।' और तब तक तुम अपने को श्रद्धालु मत कहना, जब तक तुम उन्हीं पर श्रद्धा कर सको जो शुभ हैं। क्योंकि उस श्रद्धा में क्या जान? उस श्रद्धा का मूल्य क्या? अगर मैं अच्छा हूं और इसलिए तुम श्रद्धा करते हो तो तुम्हारी श्रद्धा की क्या कीमत? अगर तुम संत पर श्रद्धा कर लेते हो तो इसमें संत का गुण होगा, तुम्हारी श्रद्धा का क्या गुण है? लेकिन जिस दिन तुम असंत पर श्रद्धा कर सकोगे, उस दिन तुम्हारी श्रद्धा का गुण प्रकट हुआ, उस दिन अब संतत्व-असंतत्व गौण हो गए, अब तुम्हारे हृदय का भाव प्रधान है। और वही श्रद्धा तुम्हारी नाव बनेगी। वही श्रद्धा जो कोई अपवाद नहीं जानती, जो संत पर तो करती ही है, असंत पर भी करती है, जो बेशर्त है। जो यह नहीं कहती कि तुम ऐसा करोगे तो मैं श्रद्धा करूंगा, जो कहती है तुम कुछ भी करो, श्रद्धा मेरा स्वभाव है। तुम चोरी करो तो श्रद्धा, तुम दान दो तो श्रद्धा, तुम कुछ भी करो, तुम्हारे करने से मेरी श्रद्धा डगमगाएगी नहीं। तुम्हारा करना और मेरी श्रद्धा का होना अलग-अलग बातें हैं। मेरी श्रद्धा मेरे भीतर का स्वास्थ्य है। उससे तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं। जिस दिन तुम चोर पर भी श्रद्धा कर सकोगे-उस चोर पर जो बहुत बार तुम्हें धोखा दे चुका, बहुत बार काट चुका जो बिच्छू, फिर भी तुम श्रद्धा करते रहोगे-वैसी श्रद्धा ही नाव बनती है। बेशर्त श्रद्धा नाव बनती है। संतों पर तो श्रद्धा नपुंसक भी कर लेते हैं। जिनके भीतर कोई श्रद्धा नहीं है वे भी कर लेते हैं, क्योंकि करनी पड़ती है, मजबूरी है। लेकिन जिस दिन तुम बुरे पर भी श्रद्धा करते हो, उस दिन तुम्हारे भीतर श्रद्धा का पहली दफा फूल खिलता है। और अब इस फूल को कोई तूफान न मिटा सकेगा। क्योंकि अब तूफान भी संगी-साथी है। तुम उस पर भी श्रद्धा करते हो। अब तुम्हारे विपरीत कोई भी न रहा। अब यह जगत शत्रुओं से खाली हो गया। क्योंकि शत्रु पर भी अब तुम्हारी श्रद्धा है। अब तुमने श्रद्धा का एक आकाश अपने चारों तरफ निर्मित कर लिया, जिसकी कोई सीमा नहीं। ऐसी श्रद्धा ही ले जाएगी परमात्मा तक। इससे कम में काम न कभी चला है, और न चल सकता है। 'संत संसार में शांतिपूर्वक, लयबद्धता के साथ जीते हैं। संसार के लोगों के बीच-ऐसे संतों के माध्यम से-हृदयों का सम्मिलन होता है। दि पीपुल ऑफ दि वर्ल्ड आर ब्रॉट इनटु ए कम्युनिटी ऑफ हार्ट।' 33
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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