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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ कहता है लाओत्से, 'सज्जन को मैं शुभ करार देता हूं, दुर्जन को भी शुभ करार देता हूं; सदगुण की यही शोभा है।' शैतान कौन है? शैतान वह है जो अशुभ को तो शुभ कहता है, बुरे को ठीक कहता है, रात को दिन कहता है, शुभ को अशुभ कहता है, दिन को रात बताता है, फूल को कांटा समझाता है। वह शैतान है। साधारणजन कौन है? साधारणजन जो शैतान और संत के बीच में है। वह शुभ को शुभ कहता है, अशुभ को अशुभ कहता है, दिन को दिन, रात को रात। संत कौन है? संत शुभ को तो शुभ कहता ही है, अशुभ को भी शुभ कहता है। दिन को तो दिन कहता ही है, रात को भी दिन कहता है। फूल को तो फूल कहता ही है, कांटे को भी फूल कहता है। क्यों? क्योंकि संतत्व की घटना जैसे ही घटी, अशुभ दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। कहना नहीं पड़ता, दिखता ही नहीं। जिसने फूल को देख लिया, उसे कांटा दिखेगा? इस गणित को थोड़ा समझ लेना जरूरी है। और जिसने कांटे को देख लिया और कांटे में चुभ गया, उसे फूल दिखाई पड़ेगा? कभी तुमने देखा है कि गुलाब की झाड़ी में गए और कांटा चुभ गया और खून निकलने लगा, दर्द होने लगा; फिर फूल दिखाई पड़ेगा? फिर फूल दिखाई ही नहीं पड़ता। फिर तुम क्रोध से भरे आते हो। और अगर तुम्हारी जिंदगी भर ऐसे ही कांटों को चुनने में बीत गई हो तो तुम कहने लगोगे कि फूल सब झूठे हैं, दूर के सपने हैं, दूर के ढोल सुहावने हैं; पास जाओ, कांटे मिलते हैं; फूल सब दूर के दिखाई पड़ते हैं, हैं नहीं; मृग-मरीचिका है। और जिसने कांटे ही कांटे को जाना, धीरे-धीरे फूल झूठा हो जाता है, धूमिल हो जाता है। भरोसा ही नहीं आता कि कांटों भरी दुनिया में फूल हो कैसे सकता है? यही तुम्हारे साथ हुआ है। तुमने दुर्जन गिने हैं, बुरे को जाना है, अशुभ को पहचाना है, चोर, बेईमान, लुटेरे, सबको तुम जानते हो, उनसे तुम्हारा गहरा परिचय है; इसलिए तुम्हें भरोसा ही नहीं आता कि संत हो भी सकता है। संत को भी तुम देखते हो तो वैसे ही देखते हो कि होगा कोई चोर, बस देर-अबेर की बात है, पता चल जाएगा। दूसरे चोर पकड़ गए, यह अभी तक पकड़ा नहीं गया, बस इतना ही फर्क है। और ज्यादा फर्क हो नहीं सकता। संत के पास भी जाते हो तो तुम अपनी जेब पकड़े रखते हो कि पता नहीं काट ले। सावधान रहते हो। क्योंकि कितना धोखा खा चुके हो, अब भरोसा कैसे हो? तुमने इतनी अश्रद्धा जानी है जीवन में कि श्रद्धा का फूल अब विश्वास योग्य नहीं । रहा। इतना धोखा, इतनी प्रवंचना, कि भरोसा कैसे करें! इससे ठीक उलटी घटना संत को घटती है। उसने ऐसा फूल जाना है जीवन में, ऐसी सुगंध, कि कैसे भरोसा करे कि कहीं कांटा भी हो सकता है! और अगर होगा तो फूल की रक्षा के लिए ही होगा। हैं भी कांटे गुलाब में फूल की रक्षा के लिए ही। वे फूल को बचाते हैं, वे फूल के प्रहरी हैं, पहरा दे रहे हैं। वे फूल के दुश्मन नहीं हैं। वे किसी को चुभने के लिए नहीं हैं वहां, कोई अगर फूल को तोड़े तो रक्षा के लिए हैं। फूल के मित्र हैं, संगी-साथी हैं। फूल का परिवार हैं। आखिर कांटा भी उसी रस से बनता है, जिससे फूल बनता है। दोनों के भीतर एक ही रसधार बहती है। वे अलग-अलग हो भी नहीं सकते। जिसने ठीक से फूल को जाना, उसको कांटे में से भी कांटापन चला जाता है। और जिसने एक भी संत जान लिया, यह सारा संसार संतत्व से भर जाता है। क्योंकि वह श्रद्धा इतनी अपरंपार है, उसकी महिमा इतनी अनंत है, कि फिर कौन भरोसा करेगा कि कोई चोर हो सकता है। जहां ऐसे संतत्व का फूल खिलता है पृथ्वी पर, आकाश में, वहां कैसे कोई चोर हो सकता है? तब तुम्हारा गणित तुमसे कहेगा कि है तो यह भी संत, अभी तक पहचाना नहीं गया। है तो यह भी संत, भला इसके कृत्य विपरीत जाते हों। भला यह इस तरह के ढंग कर रहा हो कि संत नहीं है, है तो संत। भीतर छिपा हुआ
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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