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ताओ उपनिषद भाग ५
संत निंदा नहीं करता और बदलता है। संत बुरा नहीं कहता और बदलता है। संत बदलता नहीं और बदलता है। संत के होने में कीमिया है; उसकी सारी अल्केमी उसके अस्तित्व में है। वह आश्वस्त करता है कि तुम बुरे नहीं हो। कौन कहता है कि तुम बुरे हो? किसने कहा कि तुम बुरे हो?
उसका यह आश्वासन तुम्हें उठाता है तुम्हारे गर्त से ऊपर। तुम्हें पहली दफा तुम्हारी प्रतिष्ठा मिलती है। पहली बार तुम्हें अपनी आत्मा का भाव-बोध उठता है कि मैं बुरा नहीं हूं। और एक ऐसे सरल व्यक्ति ने स्वीकार कर लिया है कि मैं बुरा नहीं हूं, अब बुरा होना बहुत मुश्किल हो गया। तुमने कितनी दफे जीवन में चाहा था कि लोग तुम्हें बुरा न समझें, लेकिन लोग तुम्हें बुरा समझते रहे। आज पहली दफे एक आदमी मिला है जिसने तुम्हें बुरा नहीं समझा। तुम्हें पहली दफे तुम्हारी गरिमा मिली है, गौरव मिला है। और जब संत से गरिमा मिलती है तो उसका मुकाबला नहीं। सारी दुनिया एक तरफ, सारी दुनिया की प्रशंसा-निंदा एक तरफ, संत की एक नजर, उसके स्वीकार की एक भाव-भंगिमा अकेली काफी है। तुम पहली दफे खींच लिए जाते हो तुम्हारे कुएं से, तुम्हारे गर्त से, तुम्हारे अंधकार से। संत तुम्हें छाती से लगा लेता है। उसी क्षण तुम बदलने शुरू हो गए।
एक मित्र ने पूछा है कि आप हर किसी को संन्यास दे देते हैं?
उनके हर किसी शब्द में ही निंदा छिपी है। वे यह कह रहे हैं, हर किसी को! कौन है हर किसी? उनका मतलब है, ऐरे गैरे नत्थू-खैरे, कोई भी! लेकिन इस अस्तित्व में कोई भी ऐरा गैरा नत्थू-खैरा है? तुमने ऐसा आदमी जाना जो ऐरा गैरा नत्थू-खैरा है? तुमने यहां कहीं क्षुद्र को देखा? और अगर तुमने क्षुद्र को देखा तो वह तुम्हारी क्षुद्रता की दृष्टि में है, वह तुम्हारी आंख पर पड़ा हुआ पर्दा है। यहां तो सभी परमात्मा हैं। यहां हर किसी शब्द का तो उपयोग ही मत करना। यहां तो तुम तुम्हारी आखिरी गरिमा में स्वीकार हो। तुम्हारे इतिहास से मुझे क्या लेना-देना? तुमने क्या किया है, उससे क्या प्रयोजन? तुम्हारी क्या अंतिम संभावना है, उस पर ही मेरी आंख है। तुम जो हो सकते हो, उसी पर मेरी आंख है। तुम जो हो, उससे मुझे कोई प्रयोजन नहीं। तुम जो रहे हो, उससे मुझे क्या हिसाब-किताब रखना है? तुम जो हो जाओगे, अंततः तुम जो हो जाओगे, एक दिन, किसी पल, किसी घड़ी जो सूर्य तुम्हारे भीतर प्रकट होगा, वह तुम्हें पता न हो, मुझे तो अभी दिखाई पड़ रहा है।
तो जब संत किसी व्यक्ति में उसे देख लेता है जो उसकी आखिरी चरमता है। तो संत के माध्यम से वह व्यक्ति भी उस आखिरी चरमता के प्रति पहली दफा सजग होता है। और यही सजगता रूपांतरण है।
कृष्ण गलत नहीं कहते, वे ठीक कहते हैं कि मैं आऊंगा। वे ठीक कहते हैं कि मैं बुराई को बदलूंगा, मैं भलाई को प्रकट करूंगा। लेकिन वह ढंग भी वही है, करने का उपाय तो वही है जो लाओत्से कहता है।
संत बदलता है, लेकिन बदलने में वह कर्ता नहीं है। संत तुम्हें बदलता है एक बड़े अनूठे उपाय से। वह उपाय है तुम्हारा स्वीकार, वह उपाय है तुम्हारे होने की आखिरी चरम शिखर की प्रतीति तुम्हें दिला देना।
बुद्ध ने कहा है कि मैं अपने पिछले जन्म में एक बुद्ध पुरुष के पास गया था। तब मैं अज्ञानी था। उस बुद्ध पुरुष का नाम था विरोचन। मैं बिलकुल अज्ञानी था। और जब मैंने जाकर विरोचन के पैर छुए, मैं उठ भी न पाया,
और मैं चकित रह गया और मैं रोक भी न पाया, मैं अवाक रह गया, मैं हतप्रभ हो गया, क्योंकि मैंने देखा, विरोचन मेरे चरण छू रहे हैं। मैंने उनसे कहा, यह आप क्या करते हैं? मेरे चरण छूकर आप मुझे और पाप में डालते हैं। मैं बहुत गया-बीता हूं; मुझसे बुरा आदमी नहीं है। मैं बिलकुल अंधेरे में हूं। मैं आपके चरण छुऊं, यह समझ में आता है। आप मेरे चरण किसलिए छूते हैं? ।
विरोचन ने कहा, मुझे पता नहीं कि तुम कौन हो, मुझे तो सिर्फ उसी का पता है जो तुम हो सकते हो। एक दिन तुम बुद्ध पुरुष हो जाओगे। मैं उसके लिए ही तुम्हारे चरण छूता हूं।
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