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धर्म की राह ही उसकी मंजिल है
अगर नाच कर पूरी हो सकती हो यात्रा तो ही पूरी होगी। जो भी मिले हैं उस आखिरी सत्य को वे नाच कर ही मिले हैं। हंसते हुए जाना, नाचते हुए जाना, गीत गाते जाना, मस्ती में जाना। श्रम की बात ही मत उठाओ। श्रम की बात ही बेतुकी है। प्रेम की चर्चा करो। प्रेम को गुनगुनाओ। और तब तुम पाओगे कि हर कदम मंजिल है। और अगर इस प्रेम में तुम डूब भी गए मझधार में तो तुम पाओगे, मझधार ही किनारा है।
आरिवरी सवालः लाओत्से ने कहा कि संत किसी में कोई सुधार नहीं करता। लेकिन कृष्ण के वचन है कि वे जन्म ही बुराई को कम करने और भलाई को बढ़ाने के लिए लेते हैं। और हमारा अनुभव भी हैं कि जो भी आपके निकट आया है उसमें आमूल परिवर्तन शुरु हुआ। लगता है, आपकी करुणा इसलिए बरसती हैं कि हरेक के जीवन में संपूर्ण परिवर्तन हो। तो लगता है, संत ही पूरा सुधार करता है।
दोनों ही बातें एक हैं। संत ही सुधार करता है, लाओत्से को इससे कोई विरोध नहीं। लेकिन संत सुधार करना नहीं चाहता। जो नहीं करना चाहता उसी से सुधार फलित होता है। जो करना चाहता है वही नहीं कर पाता।
लाओत्से इतना ही कह रहा है कि अगर तुमने किसी का सुधार करना चाहा तो इसका क्या अर्थ होता है? इसका पहला तो अर्थ होता है कि तुमने अपने को ऊपर रख लिया। मैं सुधार करने वाला! अकड़ छा गई। संत में कहीं कोई अकड़ नहीं। संत अपने को ऊपर रख ही नहीं सकता। संत है ही नहीं, रखेगा कहां? और जब तुमने कहा, मैं सुधार करना चाहता हूं, तब तुमने दूसरे को नीचे रख दिया—निंदित, पापी, गलत, बुरा। संत कहीं किसी की निंदा कर सकता है ? संत के मन में कभी किसी को नीचे रखने का सवाल उठ सकता है?
और जहां निंदा है वहां संतत्व के होने का कोई उपाय नहीं। और जिस क्षण तुमने दूसरे को नीचे रखा और दूसरे की निंदा की, उसी क्षण तुमने दूसरे को बदलने के सब द्वार बंद कर दिए। अब तो संभावना यह है कि तुमने जितना नीचे उस आदमी को रखा है वह उससे और भी नीचे गिर जाए, और तुमने जितनी उसकी निंदा की है वह उससे भी ज्यादा निंदित होने के योग्य हो जाए। क्यों? क्योंकि हम जो भाव किसी दूसरे व्यक्ति की तरफ बनाते हैं वह भाव उसे चारों तरफ से घेरने लगता है।
अगर एक व्यक्ति को सारे लोग बुरा मानते हों तो वे उसके बुरे होने में सहयोगी हो रहे हैं। क्योंकि वे उसके चारों तरफ बुरी तरंगों को निर्मित कर रहे हैं। वे उस व्यक्ति को निकलने न देंगे उन तरंगों के बाहर। अगर वह व्यक्ति कुछ अच्छा भी करेगा तो भी वे कहेंगे कि अभी पूरी बात पता चल जाने दो, यह अच्छा कर ही नहीं सकता। इसका मतलब जरूर कुछ बुरा रहा होगा। या यह भी हो सकता है कि यह करना तो बुरा चाहता रहा हो, अच्छा हो गया हो। यह दुर्घटना मालूम होती है। तुम जिस आदमी को बुरा मानते हो उसमें से तुम अच्छा देख ही नहीं सकते।
अगर तुम किसी बुरे आदमी को बुरा न मानो, तभी सुधार का रास्ता खुलता है। इसलिए संत बुराई को तो मिटाता है, लेकिन बिना बुरे को बुरा माने। इसलिए मिटाना कोई कृत्य नहीं है उसका। वह बुरे को भी स्वीकार करता है, अंगीकार करता है। उसके अंगीकार करने में ही बुरे को पहली दफा अपने आत्मभाव का स्मरण होता है।
एक चोर संत के पास आता है; संत उसे अंगीकार कर लेता है। चोर को पहली दफा यह बोध आता है कि मैं भी इस योग्य हो सकता हूं क्या? क्या मेरी यह भी पात्रता है? और चोर को यह भी बोध आता है कि जब संत ने इतने सरल भाव से स्वीकार कर लिया है तो अब चोरी करनी बहुत मुश्किल है। अब यह जो आस्था संत ने दी है उसे, यह आस्था ही उसके लिए चोरी से विपरीत जाने के लिए सब से बड़ा सबल आधार हो जाएगा। यह जो सहज स्वीकार किया है संत ने, इस स्वीकार में ही रूपांतरण है।
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