________________
ताओ उपनिषद भाग ५
बना का।
तुम प्रेम की तरह करना यात्रा। यह प्रेम-यात्रा है, श्रम-यात्रा नहीं। तुम एक-एक कदम इतने प्रेम से चलना कि जैसे एक-एक कदम मंजिल हो। तुम मंजिल की फिक्र ही छोड़ देना। तुम चलने में इतने आनंदित होना कि चलना ही जैसे मंजिल बन जाए। साधन अगर साध्य जैसा हो जाए तो तुम आखिरी क्षण में कभी भी चूक न कर पाओगे। क्योंकि तुमने प्रत्येक चरण को मंजिल समझा था, मंजिल को सामने देख कर थकने का क्या सवाल है? तुम तो हर कदम पर ही मंजिल से गुजर रहे थे। तुम प्रेम बनाना अपनी साधना को।
इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि हमारे पास योग-भ्रष्ट जैसा शब्द तो है, लेकिन भक्ति-भ्रष्ट जैसा शब्द नहीं है। क्योंकि योगी आखिरी मंजिल से भी भटक सकता है। क्योंकि योगी श्रम जैसा कर रहा है, बड़ी मेहनत उठा रहा है; जैसे परमात्मा पर कोई एहसान कर रहा है। क्योंकि तुम शीर्षासन लगा रहे, जैसे कि तुम अस्तित्व पर कोई एहसान कर रहे हो, जैसे तुम अस्तित्व को कर्जदार बना रहे हो कि देखो, मैंने कितना किया! योगी इसी भाव से खड़ा है कि देखो, मैंने कितना किया, और अभी तक नहीं मिला! एक शिकायत है।
प्रेमी की कोई शिकायत नहीं है। इसलिए भक्ति से कभी कोई भ्रष्ट नहीं होता। हो ही नहीं सकता; क्योंकि प्रेम से कभी कोई कैसे भ्रष्ट हो सकता है? प्रेम की कोई शिकायत ही नहीं है। प्रेम का तो सिर्फ धन्यवाद है। प्रेम तो कहता है कि मुझ जैसा आदमी और इतने जल्दी मंजिल के करीब आ गया! कुछ भी न करना पड़ा और मंजिल आ गई! तेरी अपरंपार कृपा है। चले भी नहीं और तेरा द्वार सामने आ गया! चलना भी कोई चलना था? चार कदम चले, वह कोई चलना था? वह कोई बात कहने की है?
प्रेमी सदा परमात्मा के द्वार पर कहता है कि मैंने कुछ भी न किया और तेरे प्रसाद की वर्षा हो गई। तेरी अनुकंपा अपार है। योगी ऐसे जाता है जैसे कि दावेदार है। प्रेमी ऐसे जाता है कि हमारा दावा क्या? अगर जन्मों-जन्मों तक न मिलता तो भी शिकायत क्या थी? शिकायत उठती है अहंकार से; शिकायत उठती है श्रम से; शिकायत उठती है तप से। प्रेम की कोई शिकायत नहीं।
और ध्यान रखना, अगर परमात्मा से ही मिलना है तो प्रेम के अतिरिक्त सभी कुछ साधारण है। तुम प्रेम से ही जाना। तुम साधन को साध्य की तरह समझ लेना, एक-एक कदम उसी की मंजिल पर पहुंच रहा है। और तुम अनुग्रह-भाव से जाना। तुम किसी को कर्जदार नहीं बना रहे हो।
और जिस दिन तुम पाओगे, याद रखना, जिन्होंने भी पाया है उन सभी ने यह कहा है कि प्रसाद है, ग्रेस है। क्यों? क्योंकि हमने जो किया वह कुछ भी नहीं सिद्ध होता है आखिर में; वह कुछ भी नहीं था। क्या कर रहे हो तुम? क्या कर सकते हो? उपवास कर लिया, कि सिर के बल खड़े हो गए, कि नंगे खड़े हो गए, कि धूप में खड़े हो गए। इससे क्या लेना-देना है उसके मिलने का? यह तुम क्या कर रहे हो? जिस दिन वह मिलेगा और जिस दिन वर्षा होगी तुम्हारे ऊपर उसके अमृत की, उस दिन क्या तुम सोचोगे जो हमने किया उससे मूल्य चुका दिया, हम पाने के अधिकारी होकर आए? उस दिन पहली दफे तुम पाओगे कि तुम्हारा तो कोई अधिकार ही नहीं बना था। यह मिला है उसके प्रसाद से, यह उसकी अनुकंपा से।
तुम अधिकारी की तरह कभी उस मंदिर में प्रवेश न कर पाओगे। तुम जब भी प्रवेश करोगे तब एक विनम्र याचक की भांति, एक विनम्र प्रेमी की भांति। अहोभाव से तुम प्रवेश कर पाओगे।
इसलिए तो मैं कहता हूं, यह यात्रा तुम नाच कर पूरी करना। इस यात्रा पर तुम्हारे पसीने के चिह्न न छूटें, तुम्हारे गीतों की छाप छूटे। तुम्हारे हर पद-चिह्न पर तुम्हारा अहोभाव छूटे। तुम्हारे अधिकारी का भाव न बढ़े, तुम्हारी विनम्रता गहन होती जाए, तुम निरहंकार होते जाओ। मंजिल आते-आते वह घड़ी आ जाए कि तुम मिट ही चुके हो-एक धुएं की रेखा, जो खो चुकी।
416