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धर्म की राह ही उसकी मंजिल हैं
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तुम इसे छोटा मत कहना । और यह भी मत सोचना कि क्या इतना सारा श्रम रत्ती भर चूक के लिए व्यर्थ हो गया ! इसे भी थोड़ा समझ लो । क्योंकि साधना को अगर तुमने श्रम समझा तो तुम कभी उस मंदिर में न पहुंच पाओगे। उस मंदिर में तो वे ही पहुंचते हैं जिन्होंने साधना को प्रेम समझा ।
प्रेम और श्रम में बड़ा फर्क है। श्रम तो वह है जो तुम बेमन से करते हो । श्रम तो वह है जो तुम करते हो, क्योंकि करना पड़ रहा है। श्रम तो वह है जिससे तुम बच सकते तो बच जाते। श्रम तो मजबूरी परवशता है। प्रेम ? प्रेम वह है जो तुम करना चाहते हो । प्रेम वह है कि तुम बचना भी संभव होता तो बचना न चाहते । प्रेम वह है जो तुम्हारी परवशता नहीं है, तुम्हारी स्वतंत्रता है। प्रेम वह है जो तुम बार-बार करना चाहोगे और थकोगे न । तुमसे हजार बार करने को कहा जाए तो तुम एक हजार एक बार करोगे ।
मुझे बचपन में व्यायाम से बड़ा प्रेम था। और जब मैं पहली दफा स्कूल में भरती हुआ तो जो मुझे शिक्षक मिले, वे दिखता है व्यायाम के बड़े दुश्मन थे । वे सजा ही देते थे दंड-बैठक लगाने की। अगर कुछ भूल-चूक हो जाए, देर से आऊं या कुछ हो, तो वे कहते, लगाओ पच्चीस बैठक। तो मैं पच्चीस की जगह पचास लगाता। तो वे कहते, तेरा दिमाग खराब है ? हम दंड दे रहे हैं !
मैं कहता कि मुझे लगाव है; आप दंड दे रहे हैं; हम व्यायाम कर रहे हैं। और जब आप मुझे दें तो मुक्तहस्त दिया करें, इसमें आप संकोच न करें कि पच्चीस ।
वे अपना सिर ठोंक लेते कि अब इसको क्या दंड देना।
श्रम का अर्थ है, जो तुम मजबूरी से कर रहे हो; प्रेम का अर्थ है, जो तुम अपने आनंद और अहोभाव से कर रहे हो। तब दंड भी दंड नहीं रह जाएगा। और अगर तुमने श्रम की भांति किया साधना को तो जो पुरस्कार था वह पुरस्कार की भांति न रह जाएगा। पुरस्कार दंड में परिवर्तित हो सकता है; दंड पुरस्कार बन सकता है।
एक अफ्रीकी संन्यासी – हिंदू संन्यासी – यात्रा पर भारत आया। वह हिमालय यात्रा पर गया। पहाड़ चढ़ रहा था, भरी दुपहरी, पसीना चू रहा था। पोटली अपने कंधे पर बांध रखी है। वजन भारी लगता है। जैसे-जैसे पहाड़ चढ़ता, उतना वजनी मालूम पड़ता है। और उसके सामने ही एक लड़की अपने भाई को कंधे पर बिठा कर चढ़ रही है। दयावश, प्रेमवश उसने उस लड़की से कहा, बेटी, बड़ा वजन लग रहा होगा। वह बेटी बड़ी क्रुद्ध हो गई। उसने कहा, वजन आप लिए हैं स्वामी जी, यह मेरा छोटा भाई है !
छोटे भाई में भी वजन होता है, तराजू पर तौलोगे तो वजन बताएगा; लेकिन हृदय पर तौलोगे तो वजन खो जाता है। उस लड़की ने ठीक ही कहा। और उस संन्यासी ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मुझे उस दिन पहली बार पता चला कि वजन भी प्रेम में तिरोहित हो जाता है, निर्धार हो जाता है।
श्रम मत समझना साधना को । साधना प्रेम है। तुम इसे आनंद भाव से करना । तुम ऐसे मत चलना कि चलना पड़ रहा है मजबूरी में, और किसी तरह चल रहे हैं; क्योंकि क्या करें, बिना चले नहीं पहुंच सकेंगे। अगर कोई शार्टकट होता तो उससे गुजर जाते, अगर कोई रिश्वत चलती होती तो रिश्वत देकर मंदिर में प्रवेश कर जाते परमात्मा के, कोई चोर दरवाजा होता तो हम वहीं से घुस जाते। लेकिन यह इतनी यात्रा करनी पड़ रही है।
इसे अगर तुमने श्रम की तरह लिया तो याद रखो, जिसको तुम चूक कह रहे हो जरा सी, वह होकर रहेगी। क्योंकि श्रम करने वाला जब मंजिल के करीब जाता है तो थक जाता है, वह विश्राम करने लगता है। वह आंख बंद करके सोचता है, अब तो आ गई मंजिल, अब तो कोई जाने की जल्दी भी नहीं है। अब तो थोड़ा आराम कर लो।
इसलिए लाओत्से कहता है, बहुत से लोग करीब पहुंच कर भटक जाते हैं; आखिरी क्षण में, जब कि द्वार खुलने को ही था, तभी चूक जाते हैं।