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वे वही सीखते हैं जो अनसीनवा है
जाए दीए की रोशनी पड़ती रहे। चोरी करने जाए तो दीया दे दूंगा कि चोरी पर रोशनी पड़े, रास्ता अंधेरा न हो; कामवासना में जाए तो दीया दे दूंगा, रोशनी रहे रास्ते पर। क्योंकि असली सवाल यही है कि तुम जो भी करो अगर होश और रोशनी से करो तो तुम्हें कुछ भी बांध न सकेगा। एक न एक दिन रोशनी तुम्हें सब नरकों के बाहर ले आएगी। इसलिए सवाल यह नहीं है कि तुम क्या मत करो, सवाल यह है कि बस होशपूर्वक करो।
संत सुधारते नहीं, इसलिए वे बिगाड़ते भी नहीं। और जो सुधारने की कोशिश में लगे हैं, वे बिगाड़ने के मूल आधार हैं। और जितना ही तुम्हारे तथाकथित साधु, जो संत नहीं हैं, जो खुद भी किसी दूसरे के द्वारा सुधारे गए हैं, यानी गहरे में बिगाड़े गए हैं, जो खुद अपने अनुभव से तिरे नहीं हैं और फूल नहीं बने हैं, जो उधार हैं, जो किसी सुधारक के चक्कर में पड़ गए हैं और किसी ने जिन्हें सुधार कर रख दिया है, बस ऊपर-ऊपर उनका सुधारापन है, भीतर-भीतर सब कचरा इकट्ठा है; ये लोग दूसरों को सुधारने में लगे हैं।
एक बात ध्यान रखना, जिस बीमारी से तुम परेशान होते हो तुम उसे फैलाने में लगते हो। संक्रामक हो जाती है। इन्होंने कामवासना को दबा लिया, इन्होंने ब्रह्मचर्य की कसम ले ली, ये पूंछ कटा बैठे हैं, अब यह तुम्हारी पूंछ पर इनकी नजर है। और जब तक तुम्हारी न काट दें तब तक इनको चैन नहीं है। क्योंकि तुम्हारी भी पूंछ कट जाए तो तुम भी इन्हीं के पूंछ-कटे समाज के हिस्से हो जाते हो। फिर तुम भी दूसरों की काटने में लग जाओगे।।
तुमने उस लोमड़ी की कहानी पढ़ी न जो पूंछ कटा बैठी थी। किसी गुरु के चक्कर में पड़ गई। गुरु तो सभी जगह हैं। मनुष्यों में भी हैं, लोमड़ियों में भी हैं। वह किसी और गुरु से कटा चुके थे। तो उसने कहा कि जब तक पूंछ न कटाओ तब तक ज्ञान उपलब्ध नहीं होता। और कष्ट से तो गुजरना ही पड़ता है, तपश्चर्या करनी ही पड़ती है। बिना त्याग किए कहीं कुछ मिला है? और पूंछ को छोड़ो। और पूंछ में है भी क्या! व्यर्थ ही लटकी है; किसी काम की भी नहीं है। और हम देखो इसी को कटा कर ज्ञान को उपलब्ध हुए हैं। हमारे गुरु भी इसी को कटा कर ज्ञान को उपलब्ध हुए थे। और ऐसा सदा से चला आया है।
बातों में पड़ गई लोमड़ी, पूंछ कटा बैठी। कटते ही उसे समझ में आया मिला तो कुछ नहीं, पूंछ भर कट गई। अब दो ही उपाय रहे : या तो वह साफ-साफ कह दे और लोमड़ियों को कि मत कटाना! लेकिन तब अपने अहंकार . को बचाने का कोई उपाय न रहा। लोग हंसेंगे, लोमड़ियां हंसेंगी, और कहेंगी, यह पूंछ कटा बैठी। गुरु से उसने कहा, मिला तो कुछ नहीं।
गुरु ने कहा, हमको क्या कुछ मिला है? मगर अब किसी से कहने में कोई सार नहीं। अब तुम भी लोगों को समझाओ कि कटाओ पूंछ। मिला किसको हैमिला किसी को भी नहीं है। यह सदा से ऐसे ही चला आया है। लेकिन जब हम फंस गए तो एक ही रास्ता है अपनी प्रतिष्ठा बचाने का कि अब तुम इसको छिपा लो, अपने दर्द को भीतर रखो, मुस्कुराओ, लोमड़ियों को समझाओ कि कटाओ पूंछ। जब तक हर लोमड़ी की पूंछ न कट जाए तब तक अपनी कोई सुरक्षा नहीं, प्रतिष्ठा नहीं। हम मारे गए।
सब जगह यही चल रहा है। तुम जाते हो एक साधु के पास; उसने संसार छोड़ दिया है। वह देख कर ही तुम्हें कहता है, छोड़ो संसार। पत्नी, घर, बच्चे, यही तो जंजाल है। बात भी जंचती है। क्योंकि तुम भी तो मुसीबत झेल रहे हो, जंजाल तो है। और यह आदमी शांत बैठा है। अब तुम्हें पता नहीं कि इनकी पूंछ कट गई है। और यह आदमी भीतर बड़ा परेशान है। इसके मन में गृहस्थी के ही विचार उठते हैं। यह बार-बार स्त्री के संबंध में सोचता है। बार-बार अपने को समझाता है कि अब ठीक नहीं, प्रतिष्ठा के विपरीत है पीछे लौटना। लोग हंसेंगे; जगहंसाई होगी। लोग कहेंगे, भ्रष्ट हो गया। तुम मौका भी नहीं देते कि कोई आदमी की पूंछ कट जाए और वह वापस आए तो तुम उसे स्वीकार भी न करोगे।
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