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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ अगर मां और बाप इस राज को समझ लें कि बेटे को दूर जाने देने में साथ दें तो सदा बेटा पास रहेगा। क्योंकि जहां भी रहेगा पास रहेगा। लेकिन मां-बाप बुद्धि को सुनते हैं, लक्ष्मण-रेखा खींचते हैं, हर जगह निषेध खड़ा करते हैं, बागुड़ लगाते हैं कि कहीं बाहर मत चले जाना। और तब एक दिन वे अचानक पाते हैं कि घोंसला खाली पड़ा है; पक्षी उड़ चुके हैं। तब वे रोते हैं। मैं अनेक लोगों को उनकी वृद्धावस्था में एक ही रोग से पीड़ित देखता हूं; वह रोग है कि उनके बच्चों ने उन्हें छोड़ दिया। तुमने पकड़ा क्यों? नहीं तो वे तुम्हें छोड़ते कैसे? तुमने पकड़ा, इसलिए ही छोड़ दिया। लेकिन बुद्धि कहती है, पकड़ में कमी रह गई। और ठीक से पकड़ना था। पहले ही कहा था कि अच्छी तरह पकड़ो, नहीं तो छूट जाएंगे। तब तुम पछताते हो और रोते हो। और यह बुद्धि का जाल जन्मों-जन्मों से चल रहा है। और इसके दुष्ट-चक्र के तुम बाहर नहीं आ पाते। 'संत कर्म नहीं करते, इसलिए वे बिगाड़ते भी नहीं हैं।' संत बिगाड़ ही नहीं सकता, क्योंकि संत सुधारता नहीं। तुम्हारी सभी धारणाएं लाओत्से के संत को समझने में । बाधा बनेंगी। क्योंकि तुम सोचते हो, संत वही है जो सुधारता है; संत वही है जो सारे संसार के उद्धार के लिए पैदा हुआ है। इससे ज्यादा झूठी कोई बात नहीं है। संत किसी का उद्धार नहीं करना चाहता। उद्धार करने वाले ही तो उपद्रव खड़ा कर देते हैं। संत तो तुम जो भी होना चाहते हो उसमें तुम्हें साथ देता है। ऐसा हुआ। कोई दो सप्ताह पहले एक वृद्ध सांझ को मुझे मिलने आए थे। और एक युवक ने पूछा कि मैं शादी करना चाहता हूं, आप क्या कहते हैं? मैंने कहा, जरूर करो। और मैंने उसे कैसे वह लड़की चुने, क्या करे, सब बताया। वे वृद्ध तो बड़े बेचैन हो गए। उन्होंने कहा कि मेरी समझ के बाहर है। संत तो मनुष्यों को वासना से उठाने के लिए है। और इस युवक को आप क्यों भटका रहे हैं? इसको सचेत करें कि शादी करना ठीक नहीं। और जब वह पूछने आपसे आया है और निर्णय आप पर छोड़ रहा है तो आप उसे ऐसी बात क्यों कह रहे हैं? मैंने कहा, वह मुझसे पूछने ही इसलिए आया है, क्योंकि अगर वह शादी न करना चाहता तो मुझसे पूछने का कोई सवाल ही न था। वह पूछने ही इसलिए आया है। और अगर मैं कहूं मत कर, तो मैं उसे करने के लिए और भी आकर्षित करूंगा। और अगर वह मेरी मान ले और न करे तो जीवन भर पीड़ित और परेशान रहेगा। क्योंकि विवाह एक अनुभव है जिससे गुजरना जरूरी है। आग से भरा है, फफोले पड़ते हैं, लेकिन उनके बिना कोई प्रौढ़ता भी नहीं आती। दूसरे से गुजरना जरूरी है, ताकि तुम अपने पर आ सको। बहुत से दरवाजे खटखटाने पड़ते हैं, तभी अपना घर मिलता है। और यह अभी बूढ़ा नहीं है; आप बूढ़े हैं। आप उस अनुभव से गुजर चुके हैं। आपको उसकी जलन याद है। आप दूध के जले हैं; अब छाछ भी फूंक-फूंक कर पी रहे हैं। इसको भी जलने दें। तो मेरा कुल काम इतना है कि मैं इसको वह सब कहूं जिससे इतना न जल जाए कि लौटने का उपाय न रहे। जले, अनुभव से गुजरे; लेकिन जीता हुआ वापस लौट आए; नष्ट न हो जाए उस अनुभव में। बस इतना ही मेरा काम है। यह जो भी करना चाहता है, उसमें मैं इसे सहयोग दूं। अगर चोर भी मुझसे पूछने आए कि मैं कैसे चोरी करूं? तो मैं उसे सम्यक चोरी का रास्ता बताऊंगा। ऐसी चोरी का रास्ता कि वह करे भी और खो भी न जाए; और एक दिन चोरी कर-कर के ही अचोर हो जाए; और एक दिन चोरी के अनुभव से ही ऊपर उठे। कमल कीचड़ से ऊपर उठता है। अचौर्य चोरी से ऊपर उठता है। ब्रह्मचर्य का फूल कामवासना के कीचड़ में ही खिलता है। और जो कीचड़ से ही वंचित हो गया, उसमें फिर फूल कभी न खिल सकेगा। और मैं कौन हूं इसको रोकने वाला? जो जहां जाना चाहता है, मैं तो उसे दीया दे दूंगा बेशर्त कि जहां भी 390/
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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