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ताओ उपनिषद भाग ५
जाए? और यह इतना रसपूर्ण है कि जैसे भंवरा बंद हो जाता है कमल में, ऐसा संत क्षण में बंद हो जाता है, क्षण में डूब जाता है। क्षण के पार कुछ भी नहीं बचता। क्षण ही शाश्वतता है।
संत के न कोई अपने निर्णय हैं, न कोई भाव। वह तो दर्पण की भांति है। वह तो वही प्रकट कर देता है जो लोगों के भाव हैं और जो लोगों के निर्णय हैं।
___ जब तुम संत के पास जाते हो तो वह तुम्हें प्रकट कर देता है। तुम यह मत सोचना कि वह अपनी धारणाएं तुमसे कह रहा है; तुम यह मत सोचना कि वह अपने भाव तुम्हें दे रहा है। जब भी तुम संत के पास जाओ, याद रखना कि संत दर्पण है, वह तुम्हारे चेहरे को ही तुम्हें दिखा देता है। हां, अगर पंडित के पास तुम जाओगे तो वह तुम्हें अपनी धारणाएं देगा, अपने विचार देगा, ज्ञान देगा। संत के पास तुम जाओगे तो वह तुम्हें तुम्हारे सामने प्रकट कर देगा। वह माध्यम हो जाएगा तुम्हें आमने-सामने करने का, अपने ही आमने-सामने होने का मौका देगा।
__ मेरे पास लोग आते हैं। कोई आदमी आकर कहता है कि मैं संसार नहीं छोड़ सकता। उसे मैं देखता हूं तो मैं उससे कहता हूं, छोड़ने की कोई जरूरत ही नहीं। शायद यह आदमी लोगों से जाकर कहेगा कि मैं संसार छोड़ने के खिलाफ हूं। मैं केवल उसकी ही तस्वीर बता रहा था और मैं कोशिश कर रहा था कि उसकी ही तस्वीर वह पहचान ले। क्योंकि उसी पहचान से वह पार जाएगा, आगे बढ़ेगा, विकास होगा। अपने पार जाना ही तो परमात्मा से मिलना है। तो उससे मैं यह कह रहा था, तू व्यर्थ परेशान मत हो; ठीक है, संसार छोड़ने की क्या जरूरत है! संसार में ही रह, ध्यान वहीं साधा जा सकता है।
फिर कोई मेरे पास आता है, वह कहता है, मैं संसार छोड़ चुका, मैं संन्यासी हूं, और आप क्या लोगों को समझाते हैं कि संसार में रहने से ही ज्ञान मिलेगा? उससे मैं कहता हूं, कोई जरूरत नहीं संसार में होने की। परम सौभाग्य है तेरा कि संसार छूट गया। अब तू लौट-लौट कर मत देख; अब जो छूट ही चुका छुट ही चुका। अब परम आनंदित हो और इस क्षण का उपयोग कर।
वह लोगों से जाकर कहेगा कि मैं साथ देता हूं, सलाह देता हूं, छोड़ दो सब! मैंने कुछ भी नहीं किया; मैंने कोई सलाह नहीं दी किसी को। मैंने केवल उसको ही दर्पण बताया।
और तुम जहां हो वहीं से तो पार होना है। तुम जहां हो वहीं से तो यात्रा करनी है। संसारी संन्यासी नहीं हो सकता आज। जो हो ही नहीं सकता, उसकी बात क्या करनी? संन्यासी जो हो ही चुका है, अब गृहस्थ होने का और ... उपद्रव उसके सिर पर क्यों डालना? मेरी कोई धारणा नहीं है। तुम जहां हो, वहीं से तुम्हें कैसे पार जाने का मार्ग मिल जाए। वह भी तुम्हारे साथ जबरदस्ती करूं कि तुम्हें उस मार्ग पर जाना ही चाहिए तो हिंसा हो जाएगी। वह भी तुम्हारी मर्जी है। मार्ग खोल देना, मार्ग साफ कर देना। फिर तुम्हारी मौज है! तुम चलो तो ठीक, न चलो तो ठीक!
लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, आप अपने संन्यासियों को अनुशासन क्यों नहीं देते कि इतने बजे उठो, इतने बजे सोओ, यह खाओ, यह करो, यह मत करो!
मैं कौन हूं किसी को अनुशासन देने वाला? उनके जीवन में ध्यान की ज्योति आ जाए, वही उनका अनुशासन बनेगी। उस ध्यान की ज्योति से ही वे चलेंगे; जो उन्हें ठीक होगा, वह करेंगे। और जो एक के लिए ठीक है, वह दूसरे के लिए ठीक नहीं है। और जो एक के लिए मार्ग है, वही दूसरे के लिए कुमार्ग हो जाता है। जो एक के लिए
औषधि है, वही दूसरे के लिए जहर हो जाता है। जो एक के लिए पथ्य है, वही दूसरे के लिए मौत हो सकती है। इसलिए मैं कौन हूं अनुशासन देने वाला? और जो भी अनुशासन ऊपर से दिए जाते हैं, वे कारागृह बन जाते हैं। अनुशासन आना चाहिए तुम्हारे भीतर से, तुम्हारे बोध से, तुम्हारी समझ से, तुम्हारी प्रज्ञा से। तो मैं तुम्हें प्रज्ञा की तरफ इशारा दे सकता हूं, लेकिन अनुशासन नहीं।
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