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________________ धारणारठित सत्य और शर्तरहित श्रद्धा - कहते हैं, विंसटन चर्चिल ऐसी मात कभी नहीं खाया। अब उसको कुछ न सूझा कि अब क्या कहे। वे अपने ही आदमी थे, तैयार थे। नाटक तो तैयारी से चल सकता है, जिंदगी नहीं चल सकती। नेता तैयारी से चल सकते हैं, संत नहीं चल सकता। क्योंकि नेता उधार हैं। तुम्हारे नेता हैं, तुम जैसे ही हैं; तुमसे भी गए-बीते हैं, तभी तुम्हारे नेता हैं। चोरों का नेता होना हो तो बड़ा चोर होना जरूरी है। बेईमानों का नेता होना हो तो बड़ा बेईमान होना जरूरी है। और तुम बड़े हैरान हो, तुम हमेशा कहते हो कि नेता बेईमान क्यों हैं? तुम्हारे नेता नहीं हो सकते, अगर बेईमान न हों। अगर चोर न हों तो तुम्हारे नेता नहीं हो सकते। और फिर तुम शिकायत करते हो कि चोर क्यों हैं? झूठे क्यों हैं? झूठे न हों तो तुम्हारा नेता होना कौन चाहेगा? राजनीति नाटक है झूठ का, धर्म नहीं। लाओत्से कहता है, 'संत के अपने कोई निर्णीत मत और भाव नहीं होते।' वह खाली जीता है एक शून्य की भांति। न कोई भाव है, न कोई निर्णय है। क्षण जहां खड़ा कर देता है, जैसा खड़ा कर देता है, जो उत्तर निकाल लेता है, वही उत्तर है, वही उसका प्रति-उत्तर है। वही उसका प्रतिसंवेदन है। पूर्व कोई तैयारी नहीं है। इसलिए संत कभी पछताता नहीं है। क्योंकि कोई उत्तर उसने तय ही न किया था, जिसके आधार पर वह सोच सके कि यह गलत हुआ कि सही हुआ। वह कभी नहीं पछताता। क्योंकि जब क्षण निकल गया तब उस क्षण के संबंध में सोचता ही नहीं। क्योंकि तब दूसरा क्षण आ गया; फुरसत किसे है? तुम्हें पीछे के संबंध में सोचने की फुरसत है, तुम्हें आगे के संबंध में सोचने की फुरसत है, संत को नहीं। संत के लिए वर्तमान इतना प्रगाढ़ है, संत के लिए वर्तमान इतना गहरा है कि समय कहां है कि पीछे लौट कर देखे? समय कहां है कि आगे लौट कर देखे? यहूदी फकीर बालसेम से किसी ने पूछा कि मैं वर्षों से साधना कर रहा हूं और मैंने अपनी जवानी में सुना था कि अगर तुम सम्मान का तिरस्कार करो और अगर तुम लौट-लौट कर फिक्र न करो कि सम्मान मिल रहा है कि नहीं, तो तुम्हें जरूर सम्मान मिलेगा, और अतिशय से मिलेगा। आदर मत चाहो और आदर मिलेगा। पूजा मत चाहो और पूजा मिलेगी। लेकिन अब मुझे चालीस साल हो गए तपश्चर्या करते-करते, अभी तक वह घटना घटी नहीं। अब तो मुझे उस कहावत पर भरोसा उठने लगा है। बालसेम ने क्या कहा? बालसेम ने कहा, कहावत तो वैसी की वैसी सही है। तुम उसे पूरा नहीं कर पाए; तुम पीछे लौट-लौट कर देख रहे हो कि सम्मान आ रहा कि नहीं? तुम सम्मान पाने के लिए ही सम्मान का तिरस्कार कर रहे हो। यह तिरस्कार झूठा है। और यह तैयारी यह तैयारी ही-बाधा बन रही है। तुम फिक्र छोड़ो। आता है या नहीं आता, क्या लेना-देना है? तब आता है। लेकिन अगर तुम इसीलिए छोड़ रहे हो कि आए, तो तुम छोड़ ही नहीं रहे हो। और तुम लौट-लौट कर पीछे देखते रहोगे कि अभी तक, अभी तक नहीं आया, अभी तक सम्मान नहीं मिला, अभी तक दुनिया में पूजा शुरू नहीं हुई और मैंने पूजा की फिक्र छोड़ रखी है तीस वर्षों से, चालीस वर्षों से। यह देखना ही बताता है कि फिक्र छोड़ी नहीं। तुम पीछे लौट कर देखते हो; क्योंकि पछतावा है हाथ में। तुम आगे देखते हो; क्योंकि जो भूल पीछे हो गई, आगे न हो। इसलिए आगे का इंतजाम करते हो। और इंतजाम के कारण ही भूल पीछे हो गई। अतीत तुमने गंवाया, क्योंकि तुम तैयार थे। भविष्य भी तुम गंवाने की तैयारी कर रहे हो, क्योंकि तुम फिर तैयार हो रहे हो। संत के लिए न तो कोई अतीत है, न कोई भविष्य है। संत के लिए यही क्षण बस, यही क्षण पर्याप्त। यही क्षण एकमात्र क्षण है। यही क्षण पूरा समय है। इस क्षण के न आगे कुछ है, न पीछे कुछ है। और यह इतना प्रगाढ़ है कि समय किसको है? और यह इतना आनंदपूर्ण है कि कौन लौट कर पीछे देखे? और यह इतना गहन है कि कौन आगे
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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