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जो प्रारंभ है वही अंत हैं
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संसार में जो उलझ गया उसके सामने वे प्रकट होने का मौका ही नहीं आता। जिसने सांसारिक चित्रों को बीत जाने दिया उसके सामने आध्यात्मिक चित्र आने शुरू होते हैं।
वह अच्छा लक्षण है। वह बताता है कि तुम थोड़े शांत हुए हो, तुम थोड़ी देर कुर्सी में बैठे रहे हो, तुम थोड़ी देर उछल उछल कर मंच पर नहीं पहुंचे हो। इसलिए अब ये रंग आने शुरू हुए। और जब तुम पाओगे भीतर के रंग-बड़े अनूठे । हर चीज अलौकिक हो जाती है। ध्वनियां सुनाई पड़ती हैं, जो कि बड़े-बड़े संगीतज्ञ पैदा नहीं कर सकते। बड़े से बड़ा संगीतज्ञ जो कर सकता है वह भी उन ध्वनियों की प्रतिध्वनि मालूम होगी। चांद-तारे हजार-हजार, सूरज करोड़ों ! बड़ा अनूठा लोक प्रकट होता है।
तुम जैसे-जैसे शांत होते हो, वैसे-वैसे बड़े अनूठे रूप-रंग की दुनिया प्रकट होती है। और वह इतनी वास्तविक मालूम होती है कि यह संसार माया मालूम पड़ेगा। जिसने भीतर का नील तारा देख लिया उसे सब जगत के नीले रंग बस जस्ट फीके फीके मालूम पड़ेंगे, उसकी ही कुछ छाप, वह भी धुंधली - धुंधली, कार्बन कापी । जिसने भीतर की सुंदर अप्सरा देख ली, उसे बाहर की सब स्त्रियां फीकी- फीकी मालूम पड़ेंगी, उजड़ी - उजड़ी, खंडहर । जिसने भीतर के धन की झलक पा ली, सब तिजोरियां खाली मालूम पड़ेंगी।
लेकिन ध्यान रखना कि वह भी अभी बाहर है; सब दृश्य बाहर हैं। भीतर तो केवल द्रष्टा है। तो इनको भी गुजर जाने देना । बहुत से संसार में उलझे हैं; बहुत से अध्यात्म में उलझ जाते हैं। मेरे पास वे अध्यात्म में उलझे वाले लोग आते हैं। वे मुझसे चाहते हैं, मैं उनकी गवाही दूं ।
अब मेरी बड़ी मुश्किल है। अगर मैं उनको कहूं कि हां, बड़ा गजब का काम हो रहा है, तो उसमें उलझते हैं और। अगर उनको कहूं कि इसकी फिक्र न करो, तो वे उदास होते हैं। वे कहते हैं कि मैं सहायता नहीं दे रहा, उलटा उनको उदास कर रहा हूं। हम बड़ी आशा से आए थे। अगर मैं उनको कहूं कि ये नील तारे, ये सूरज हजार-हजार, ये सब भी कल्पनाएं हैं; यह तुम्हारे कृष्ण बंसी बजाते हुए, यह भी तुम्हारे मन का खेल है; ये तुम्हारे बुद्ध, महावीर, ये तुम्हीं बना रहे हो, यह आखिरी मन का भुलावा है; तो उनको पीड़ा होती है कि उनके कृष्ण को मैं कह रहा हूं कि यह मन की कल्पना है। और वे बड़ी मुश्किल से पा सके हैं इसको, और मैं उनसे यह भी छीने ले रहा हूं।
तो या तो वे भाग ही खड़े होते हैं; फिर दोबारा लौट कर नहीं आते; कि ऐसे आदमी के पास क्या जाना! वे तो उन आदमियों की तलाश करते हैं जो कहते हैं, गजब हो गया! तुम तो सिद्ध पुरुष हो गए; तुमने तो पा लिया। यही तो असली रहस्य है। यही तो अध्यात्म है।
नहीं, न तो यह असली रहस्य है और न असली अध्यात्म है। यह भी मन का ही खेल है। मन जब देखता है कि तुम संसार में नहीं उलझाए जा रहे जो मन नई लालच फेंकता है। मन कहता, पुराना लोभ गया, कोई फिक्र नहीं । तुमने मदारी की ट्रिक पकड़ ली, मदारी कहता है, रुको, हम दूसरी दिखाते हैं; इससे भी बढ़िया । यह तो कुछ भी नहीं, यह तो हमने ऐसे ही दिखा दी थी। मन मदारी है। और मन आखिरी तक दिखाएगा। और होश को तुम्हें सम्हाले जाना है।
एक ऐसी घड़ी आती है कि तुम नहीं थकते होश से और मन दिखाने से थक जाता है। बस उसी घड़ी क्रांति घटित होती है। फिर मन का मदारी अपनी टोकरी, अपना सामान और अपने जमूरे को लेकर कहता है, चल बेटा! वह चल पड़ा। वह तुम्हें छोड़ गया। नाटक बंद हुआ। मंच खो गई। तुम अकेले रह गए अपनी कुर्सी पर ।
उसी को महावीर ने सिद्धशिला कहा है; कुछ भी न बचा, अकेले बैठे रह गए। वही बैठक सिद्धि है। अब कुछ दिखाई नहीं पड़ता। अब बस देखने वाला है। अब कोई आब्जेक्ट न रहा, सिर्फ सब्जेक्टिविटी है। अब सिर्फ आत्मा बची, अनुभव न बचा।