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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ . हुई तुम न पक्ष में, न विपक्ष में। तुम बैठ गए। तुम देख रहे हो। तुम कहो कि आओ, जो जो है। बनने दो रूप। घबड़ाओ मत। मन अगर सुंदर स्त्रियों को भोगने लगे, भोगने दो। तुम इतना ही खयाल रखो कि तुम पार बैठे देख रहे हो। तुम कुछ भी मत करो। कृत्य किया कि भूल हुई, कि तुमने तलवार उठा ली, कि तुमने कहा मैं ब्रह्मचर्य का व्रत लिए बैठा हूं, यह क्या हो रहा है। कृत्य किया कि भूल हुई। लड़े कि चूके। लड़े कि हार की बुनियाद रखी। तुम तलवार मत उठाना। तुम बस दोनों हाथ बांध कर बैठ जाना। इसीलिए तो बुद्ध, महावीर, सब दोनों हाथ बांधे बैठे हैं। नहीं तो भूल से हाथ उठ जाए। तुम दोनों हाथ बांध कर बैठ जाना। शरीर को हिलाना-डुलाना नहीं। भीतर कृत्य को हिलाना-डुलाना नहीं। और जो भी मन चाहता हो वह उसे करने देना। भोगने देना स्वर्ग की अप्सराओं को; कुछ हर्जा नहीं है, भोग लेने दो। कुछ बिगड़ भी नहीं रहा; नाटक है, हो लेने दो। तुम्हारा क्या लेना-देना है? शरीर में छिपे वासना के कण हैं; मन में छिपी वासना की आकांक्षा है; शरीर और मन का खेल है। शरीर की मंच है; मन के अभिनेता हैं। तुम तो केवल साक्षी हो, तुम तो केवल दर्शक हो। तुम्हें उठ कर मंच पर जाने की जरूरत नहीं है। तुम्हें सम्मिलित होने की कोई जरूरत नहीं है। तुम तो बैठे रहो। थोड़ी देर में खेल बंद होगा, तुम अपने घर चले जाओगे। यह तुम्हारा घर नहीं है। न तुम अभिनेता हो और न तुम मंच हो। शरीर मंच है। शरीर में छिपी हुई बायोलाजी की भूख है, जो काम बनती है, क्रोध बनती है, लोभ बनती है। फिर मन इस सारी शरीर में छिपी हुई भूख को रूप देता है, विचार देता है, रंग देता है, ढंग देता है, कहानी को लिखता है। स्क्रिप्ट मन की है; मन अभिनेता देता है। तुम नाहक ही बीच में आ जाते हो। तुम बीच में मत आओ। तुम दूरी कायम रखो और देखते रहो। और तब तुम बड़े प्रसन्न होओगे। मन में जैसा नाटक चलता है ऐसा नाटक कहीं भी नहीं चलता। मनोरम है, मनोरंजक है। और मुफ्त है। कहीं जाना नहीं। किसी टिकट-घर के सामने कतार लगा कर खड़े होना नहीं। जब आंख बंद की तब खेल चल ही रहा है। और तुम जितने शांत होकर बैठोगे, खेल उतना रंगीन हो जाएगा। पहले हो सकता है, शुरू-शुरू में नाटक ब्लैक एंड व्हाइट में हो, पुराने किस्म की फिल्म चले। जल्दी ही मल्टीकलर, अनेक रंग, बहुविध रंग प्रकट होंगे-अगर तुम बैठे रहो। पहले सांसारिक खेल चलेगा। अगर तुम बैठे रहे, जल्दी ही सांसारिक खेल गिर जाएंगे और जिनको आध्यात्मिक खेल कहते हैं, वे चलने शुरू होंगे। कुंडलिनी जग रही है; प्रकाश दिखाई पड़ रहा है। राम खड़े हैं धनुष लिए; कृष्ण बांसुरी बजा रहे हैं; जीसस सूली पर लटके हैं-ये आध्यात्मिक नाटक हैं। ये भी नाटक ही हैं। इनका भी सारा का सारा खेल मन का ही है। और इनकी मंच भी शरीर है। तुम इनको भी देखते रहो। जैसे संसार बीत गया, ऐसे यह खेल भी बीत जाएगा। तुम देखते ही रहो। तुम दर्शक से ज्यादा इंच भर कुछ और मत बनना। बड़ा कठिन है। कई बार एकदम दिल हो जाएगा, अरे कूद पड़ो बीच में। कई बार तुम पाओगे कि भूल ही गए और कूद पड़े। जैसे ही पाओ कि कूद पड़े, फिर वापस अपनी कुर्सी पर लौट आना और बैठ जाना। कई बार यह भूल होगी। पुरानी आदत है। इसमें भी कुछ परेशान होने की जरूरत नहीं। जब भूल गए, भूल गए; अब क्या करना। जब याद आ गई, वापस लौट कर फिर बैठ कर देखने लगे। पहले संसार गुजरेगा, फिर अध्यात्म गुजरेगा। संसार से तो बच जाना बहुत आसान है, अध्यात्म से बचना बहुत कठिन है। क्योंकि वह और भी मनोरंजक है। बहुरंग है; उसके रंग संसार में दिखाई ही नहीं पड़ते। तुमने नीला रंग देखा है, लेकिन वह कुछ भी नहीं है। जिस दिन तुम्हारे भीतर नील तारा दिखाई पड़ेगा, जब तुम अपने ही तीसरे नेत्र में देखोगे कि नील तारा प्रकट हो रहा है, वह नीलिमा अलौकिक है। उसमें तुम तरोबोर हो जाओगे, उसमें तुम डूब जाओगे, उसमें तुम भूल जाओगे कि तुम दर्शक हो, अपनी कुर्सी पर बैठे रहो। तुम भोगी बन जाओगे। क्योंकि कुछ भी नहीं है अप्सराओं में, और कुछ भी नहीं है धन-तिजोरी में, जब भीतर के सूक्ष्म रंग प्रकट होते हैं। और वे उसी के सामने प्रकट होते हैं जो संसार को बिता दे। 372
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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