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________________ जो प्रारंभ है वही अंत है लोभ को पूरा उठा कर देख लो। जो धीरे-धीरे अपने आप उठेगा उसे तुम खुद ही खींच कर निकाल लो बाहर, अप्रकट से प्रकट में ले आओ। जो वृक्ष वर्षों में बड़ा होगा, तुम जादू का काम कर सकते हो। तुमने जादूगर देखे? आम की गुठली को छिपा देते हैं टोकरी के नीचे; जंतर-मंतर पढ़ते हैं; टोकरी उठाते हैं-पौधा हो गया। फिर टोकरी रख दी; फिर जंतर-मंतर पढ़ा; फिर थोड़ा डमरू बजाया, फिर टोकरी उठाई-झाड़ बड़ा हो रहा है। फिर टोकरी ढांकी; फिर जंतर-मंतर पढ़ा; फिर डमरू बजाया; फिर उठाया-झाड़ में फल लग गए हैं। फिर टोकरी रखी; फिर जादू किया; टोकरी उठाई-फल पक गए हैं। फल तोड़ कर वे तुम्हें दे देते हैं। यह तो सब हाथ की सफाई है। लेकिन तुम अपने भीतर यह बिलकुल कर सकते हो। यह जंतर-मंतर करो। लोभ उठता हो, टालो मत। बैठे जाओ; अंधेरा कर लो कमरा; दरवाजे-द्वार बंद कर दो; टोकरी में ढंक जाओ; फेंको जंतर-मंतर, कहो कि बड़ा हो! और भीतर कोई दिक्कत नहीं है; कहो कि बड़ा हो, बड़ा हो जाता है। कहो कि क्रोध बड़ा हो, लोभ बड़ा हो, तुझे मैं पूरा देख लेना चाहता हूं। कल तू अपने आप बढ़ेगा, अभी बढ़ जा! क्या-क्या चाहता है? महल चाहता है? साम्राज्य चाहता है? क्या चाहता है? अभी बोल दे सब! अभी खोल दे सब! कल के लिए क्या रुकना? क्रोध को पूरा उठा लो। क्रोध बड़ी प्रसन्नता से बढ़ेगा; झाड़ बड़ा होगा; जल्दी फल लग जाएंगे; पक जाएंगे। तुम सिकंदर हो गए। सारी दुनिया का राज्य तुम्हारा है। इसको देख लो। इसको पूरा उठा लो। इसको पूरा पहचान लो। और पूरे वक्त होश रखो कि कैसा खेल मन खेल रहा है! जो असफलता सिकंदर को जीवन के बाद में दिखाई पड़ी वह तुम्हें घड़ी भर में दिखाई पड़ जाएगी कि पा भी लिया दुनिया का राज्य तो क्या होगा? मिल गई सारी संपदा, क्या होगा? क्या करोगे? खाओगे संपदा को? पीओगे संपदा को? और इसे पाने में पूरा जीवन नष्ट हो जाएगा। सिकंदर को मरते वक्त लगा कि मेरे हाथ खाली हैं। तुम घड़ी भर ध्यान करके लोभ को पूरा बढ़ा लो, फल तक पहुंचा दो; सिकंदर हो जाओ; जीत लो सारी दुनिया। न कोई हत्या करनी पड़ती, न कोई हिंसा करनी पड़ती, न कहीं जाना पड़ता। सिर्फ जादू का एक खेल करना है। जो सिकंदर को आखिरी वक्त जीवन गंवा कर लगा कि मेरे हाथ खाली हैं, वह तुम्हें इस छोटे से खेल में ही लग जाएगा कि हाथ खाली हैं। हाथ खाली हैं; यह दौड़ व्यर्थ है। और यह दौड़ व्यर्थ हो जाए तो तुमने आने वाले को रोक दिया, तुमने होने वाले को बदल दिया। कुछ भी हो भीतर की समस्या, देर मत करो। बीज मत बनाओ। समय मत दो। बढ़ने का मौका मत दो। अभी बढ़ा लो, देख लो। इसी को आत्म-निरीक्षण कहते हैं। और आत्म-निरीक्षण करने में तुम्हारी दोहरी क्षमता बढ़ेगी। एक तरफ लोभ की व्यर्थता सिद्ध हो जाएगी, निरीक्षण करते-करते तुम्हारा होश भी सिद्ध होगा। ये दोहरे फायदे होंगे। हर समस्या को तुम सीढ़ी बना सकते हो। अगर देर न करो, तो हर समस्या तुम्हें जीवन में परिपक्वता लाने का साधन बन सकती है। समस्या है ही इसीलिए कि तुम उसे सुलझाओ। क्योंकि सुलझाने से तुम बढ़ोगे, प्रौढ़ होओगे। सुलझाने से तुम मजबूत होओगे। समस्या को टालो मत। पलायन मत करो। एक बात। पिछली समस्याओं को, जिनको टाल दिया है, पलायन करते रहे हो, उनसे लड़ो मत। उनको भी मन में फैलने का मौका दो। तुम बैठ जाओ नदी के किनारे और बहने दो तुम्हारी समस्याओं की धार को। तुम साक्षी, उपेक्षा से भरे, उदासीन, देखते रहो। न इस तरफ, न उस तरफ; न पक्ष में, न विपक्ष में। कामवासना की धारा बहती है, बहने दो। तुम किनारे पर बैठे हो; कुछ लेना-देना नहीं है। न तुम पक्ष में हो, न तुम विपक्ष में हो। न तुम संसारी हो और न तुम साधु हो। यही मेरे संन्यास का अर्थ है कि न तुम संसारी हो और न तुम साधु हो। न तुम भोगी हो, न तुम त्यागी हो। तुम दोनों पक्ष में नहीं हो। कबीर कहते हैं, पखापखी के पेखने सब जगत भुलाना। पक्ष-विपक्ष के उपद्रव में सारा जगत भूला है। 371/
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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