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धारणारठित सत्य और शर्तरक्षित श्रद्धा
एक मनोवैज्ञानिक ने एक छोटा सा प्रयोग किया-धारणाओं से कैसे भ्रांतियां पैदा होती हैं। काशी के विश्वनाथ मंदिर में वह गया और शंकर की प्रतिमा के पास, शिवलिंग के पास, उसने अपना हैट उतार कर रख दिया। दरवाजे पर जाकर उसने एक आदमी, जो अजनबी आदमी अंदर आ रहा था, उसने कहा, रुको, यह शंकर की प्रतिमा के पास क्या रखा हुआ है तुम बता सकते हो? अब कोई भी नहीं कल्पना कर सकता कि शंकर की प्रतिमा के पास और हैट होगा! उस आदमी ने गौर से देखा और उसने कहा, किसी ने घंटा उतार कर रख दिया है।
शंकर की प्रतिमा के पास घंटा की तो संगति है, हैट की बिलकुल नहीं। शंकर जी हैट लगाए नहीं कभी। तो तुम सोच भी नहीं सकते, तुम्हारी धारणा प्रवेश नहीं कर पाती।
रात अंधेरे में तुम निकलते हो और तुम्हें भूत-प्रेत दिखाई पड़ने शुरू हो जाते हैं। ये तुम्हारी धारणाओं के हैं। लकड़ी का खूट खड़ा है और तुम्हें भूत दिखाई पड़ता है। और तुम उसमें सब हाथ-पैर वगैरह जोड़ लेते हो। धीरे-धीरे आंख की प्रतिमा भी निकल आती है, चेहरा भी दिखाई पड़ने लगता है। तुम अपनी धारणा से खड़ा कर रहे हो।
तुम मरघट से निकल सकते हो रोज, अगर तुम्हें पता न हो कि यह मरघट है। बस एक दफे पता चल गया कि फिर भूत-प्रेत मिलेंगे। पहले नहीं मिले; पहले तुम वहीं से निकलते थे। क्योंकि धारणा न थी। अब धारणा रूप खड़ा करती है। तुम जो देखते हो, ध्यान रखना, जरूरी नहीं है कि वही हो-जो तुम देख रहे हो, वह हो भी वहां। तुम वही देख लेते हो जो तुम्हारी धारणा में बैठा है। तुम वही सुन लेते हो जो तुम्हारी धारणा में बैठा है।
और जब तुम बहुत तैयार होकर जीवन के पास जाते हो तो तुम्हारे भीतर संध भी नहीं होती जिससे जीवन प्रवेश कर जाए। तुम्हारी तैयारी सख्त पत्थर की दीवार की तरह खड़ी होती है। जीवन कुछ पूछता है, तुम कुछ और कहते हो। जीवन कुछ मांगता है, तुम कुछ और देते हो। तुम मिल नहीं पाते। इसीलिए तो तुम बेचैन हो। क्या है संताप मनुष्य का? यही कि वह जीवित है और जीवित नहीं; यही कि वह जीवित होते हुए भी मरा-मरा जी रहा है। उसका जीवन एक यथार्थ नहीं है, बल्कि एक स्वप्न है। इस स्वप्न को ही हमने माया कहा है।
संसार तो सत्य है; लेकिन जिस संसार को तुम देख रहे हो, वह सत्य नहीं है। तुम्हारा देखा हुआ संसार तुम्हारी धारणा से बनाया हुआ संसार है, तुम्हारी कल्पना से भरा हुआ संसार है। तुम अपने जीवन में खोजने की कोशिश करना; कई बार तुम अपने ही कारण, अपनी ही धारणा के कारण कुछ का कुछ समझ लेते हो।।
एक हसीद फकीर हुआ, झुसिया। वह एक गांव से गुजर रहा था। उसके दो शिष्य साथ थे। अचानक एक औरत दौड़ कर आई और लकड़ी से उसने झुसिया पर प्रहार किया। झुसिया गिर पड़ा। और वह लकड़ी और उठा कर मारने ही वाली थी कि शिष्यों ने कहा, यह क्या करती हो? तो वह स्त्री भी चौंकी। उसने गौर से देखा, सिर से लहू बह रहा है। उस स्त्री का पति बीस साल पहले भाग गया था। यह झुसिया उसके पति जैसा लगता था। देख कर उसने होश खो दिया, क्रोध आ गया। झुसिया उठ कर खड़ा हुआ, लहू पोंछा। वह स्त्री माफी मांगने लगी, पैर पर सिर रखने लगी। उसने कहा कि रुक, तूने मुझ पर चोट ही नहीं की, तूने अपने पति पर चोट की। कभी मिल जाए तो
माफी मांग लेना। मुझसे माफी मत मांग! मैं माफी देने वाला कौन? तूने मुझे चोट ही नहीं की, तूने अपने पति को , चोट की। कभी मिल जाए, माफी मांग लेना। मुझसे तेरा कुछ लेना-देना ही नहीं है।
जिंदगी में कितनी बार तुम किसी और पर चोट करते हो, जो चोट किसी और पर करना चाही थी। पत्नी पर नाराज थे, बेटे पर क्रोध निकाल लेते हो। दफ्तर में गुस्सा हुए थे, पत्नी पर टूट पड़ते हो। और तुम्हें कभी खयाल भी नहीं होता, तुम क्या कर रहे हो? क्योंकि बासे ढंग से जीना तुम्हारी आदत हो गई है। तुम सदा भरे-भरे हो। और वह भरा हुआ पन तुम्हारा न तुम्हें पहचानने देता, न देखने देता कि जीवन की मांग क्या है। और जीवन प्रतिपल नया मांगता है। क्योंकि नए मांग से ही वह तुम्हें नया करता है। जीवन तुम्हें युवा रखता है। तैयारी तुम्हें बूढ़ा कर देती है।
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