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स्वादहीन का स्वाद लो
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कर्म को देख कर साक्षी बनोगे। फिर अकर्म को देख कर साक्षी के भी पार हो जाओगे। वहां फिर कोई शब्द सार्थक नहीं है। फिर तुम यह न कह सकोगे मैं कौन हूं।
बोधिधर्म से पूछा चीन के सम्राट ने, तुम कौन हो? तो बोधिधर्म ने कहा, मुझे पता नहीं। चीन के सम्राट ने अपने दरबारियों से कहा, हम तो सोचते थे कि धर्म का संबंध आत्मज्ञान से है। तो यह बोधिधर्म किस तरह का ज्ञानी है ? क्योंकि यह कहता है मुझे कुछ पता नहीं ।
तुम भी सुनोगे तो यही समझोगे। लेकिन बोधिधर्म तुम्हारे आत्मज्ञानियों से बड़ा ज्ञानी है। वह एक कदम और ऊपर गया है।
अज्ञानी को भी पता नहीं कि मैं कौन हूं। परम ज्ञानी को भी पता नहीं रह जाता कि मैं कौन हूं। अज्ञानी को इसलिए पता नहीं कि उसे होश नहीं है। परम ज्ञानी को इसलिए पता नहीं रहता कि होश ही होश बचता है, रोशनी ही रोशनी बचती है। कुछ दिखाई नहीं पड़ता रोशनी में, कोई आब्जेक्ट नहीं बचता, कोई वस्तु नहीं बचती; सिर्फ प्रकाश रह जाता है। अनंत प्रकाश, और दिखाई कुछ भी नहीं पड़ता, तो किसको कहें कि मैं कौन हूं?
एक अज्ञान है; अंधकार के कारण दिखाई नहीं पड़ता । और ज्ञानी का भी एक परम अज्ञान है, जब रोशनी ही रोशनी रहती है, और कुछ दिखाई नहीं पड़ता ।
बोधिधर्म ने बड़ी अदभुत बात कही है; शायद ही किसी दूसरे ज्ञानी ने इतने हिम्मत से कही है कि मुझे कुछ भी पता नहीं। सम्राट नहीं समझ पाया, क्योंकि यह तो भाषा के पार की बात हो गई । बोधिधर्म के शिष्यों में भी थोड़े ही समझ पाये । उनको भी लगा कि यह तो बोधिधर्म ने कैसा जवाब दिया ! ज्ञानी को तो कहना चाहिए कि हां, मुझे पता है कि मैं कौन हूं। ज्ञानी ने कहा कि मुझे भी पता नहीं कि मैं कौन हूं!
वह इसीलिए कहा कि जब न कर्ता बचा, न साक्षी बचा, तो अब क्या उत्तर देना है।
'अकर्म पर अवधान दो ।'
फिर तीसरा सूत्र है, 'स्वादहीन का स्वाद लो।'
तभी तुम्हें स्वादहीन का स्वाद मिलेगा। अभी तुमने कर्म का स्वाद लिया है। कर्म का स्वाद दो तरह का है : - सुख और दुख । कर्म सफल हो जाए तो सुख का स्वाद मिलता है। कर्म असफल हो जाए तो दुख का स्वाद मिलता है। अगर तुम निष्क्रियता साध लो तो तुम्हें शांति का स्वाद मिलेगा। वहां न सुख होगा, न दुख; बस परम शांति होगी । परम चैन की बंसी बजेगी; अस्खलित चैन ही चैन मालूम होगा। एक विश्राम, विराम; सब ठहर गया; सब कर्म खो चुका। कर्ता खो चुका, तुम सिर्फ देख रहे हो। वहां कोई सुख-दुख नहीं प्रवेश कर पाता। वहां एक ग मौन और शांति है। लेकिन लाओत्से उसे भी स्वादहीन स्वाद नहीं कहता। कहता है, अभी अनुभव करने वाला बाकी है, अनुभोक्ता साक्षी बाकी है। थोड़ा सा फासला है, अभी थोड़ी दूरी है। अभी अनुभव घटित हो रहा है।
फिर एक स्वादहीन स्वाद है। जब साक्षी भी खो गया, स्वाद लेने वाला न बचा, तब एक स्वाद है; उसी को हमने आनंद कहा है।
लाओत्से कहता है, 'स्वादहीन का स्वाद लो।'
ये तीन सूत्र बड़े कीमती हैं : 'निष्क्रियता को साधो । अकर्म पर अवधान दो । स्वादहीन का स्वाद लो।'
'चाहे वह बड़ी हो या छोटी, बहुत या थोड़ी, घृणा का प्रतिदान पुण्य से दो ।'
निष्क्रियता को साधना हो तो तुम्हें यह खयाल रखना पड़े। कोई गाली देता है तो तुम धन्यवाद हो; कोई घृणा करता है तो तुम पुण्य से प्रतिकार करो। छोटी घृणा, बड़ी घृणा, अपमान, तिरस्कार; तुम बुरे का जवाब बुरे से मत देना । अन्यथा तुम कर्म में खींच लिए जाओगे ।