________________
ताओ उपनिषद भाग ५
निष्क्रियता को साधने का अर्थ होगा कि तुम कर्म को देखो। तुम जो भी कर रहे हो उसको देखो, पहचानो। उतरो कर्म की गहनता में, क्यों कर रहे हो? और जल्दी से दूसरों के उत्तर मत मान लेना। वही तुम्हारी भूल है। बताने वाले हर जगह तैयार खड़े हैं कि हम बताए देते हैं, क्यों कर रहे हो। लेकिन हर व्यक्ति इतना पृथक और भिन्न है कि कोई भी सामान्य फार्मूला काम नहीं करता। तुम अपने ही कारण कर रहे हो। तुम्हारी आत्मकथा बस तुम्हारी है। जैसे तुम्हारे अंगूठे का निशान बस तुम्हारा है, वैसे ही तुम्हारी आत्मकथा तुम्हारी है, किसी दूसरे की नहीं।
और तुम जब अपने कृत्यों में, अपने निजी कृत्यों में अपने निजी होश से उतरोगे, तभी तुम समझ पाओगे उनकी व्यर्थता। और एक बार व्यर्थता दिख जाए तो जिस कृत्य में व्यर्थता दिख जाती है, वह गिर जाता है। उसे ढोने का उपाय ही नहीं है। यही है साधना निष्क्रियता का।
धीरे-धीरे-धीरे-धीरे व्यर्थ कृत्य गिर जाएंगे; सार्थक बचेंगे। सार्थक से कोई विरोध नहीं है। बिलकुल जरूरी बचेंगे। बिलकुल जरूरी जरूरी हैं। उनको तोड़ना भी नहीं है, हटाना भी नहीं है। सिर्फ अकारण समाप्त हो जाए; तुम शुद्ध हो जाओगे, तुम निष्कलुष हो जाओगे; तुम्हारी ऊर्जा संगृहीत होने लगेगी।
यही है निष्क्रियता को साधना। कर्मों को देखना, उनकी व्यर्थता को पहचानना। उनकी व्यर्थता की पहचान से . उनका गिरना फलित हो जाता है। धीरे-धीरे काटते-काटते-काटते तुम्हारी मूर्ति निखर आती है। तब तुम बैठे हो; और तुम तब बैठ कर भी आनंदित होते हो, सिगरेट की जरूरत नहीं; क्योंकि तुमने अब खाली होने का रस पहचान लिया। अब तुम्हें व्यस्तता की कोई जरूरत नहीं; तुम अकेले में भी प्रसन्न होते हो। कोई आ जाए तो भी प्रसन्न, कोई न आए तो भी प्रसन्न। अब तुम्हारी प्रसन्नता किसी पर निर्भर नहीं है। कोई आता है तो तुम अपनी प्रसन्नता बांट देते हो; कोई नहीं आता तो तुम अपनी प्रसन्नता में मस्त रहते हो। तुम्हारी मौज अब तुम्हारे भीतर से आती है। अब किसी के द्वारा नहीं है, कि क्लब जाओ, कि मित्रों से मिलो, कि नाच-घर जाओ, यहां भागो, वहां भागो। अब कहीं भागने की कोई जरूरत नहीं। तुमने अपने जीवन का मंदिर खोज लिया; वह तुम्हारे भीतर है। निष्क्रिय जैसे-जैसे तुम होते हो, भीतर का मंदिर उठने लगता है। उसका शिखर ऊपर, और ऊपर, और ऊपर जाने लगता है।
मुसलमानों ने मस्जिदों के पास जो मीनारें बनाई हैं, वे उस ऊपर जाते हुए शिखर के प्रतीक हैं। जैसे-जैसे कोई भीतर शांत होने लगता है वैसे-वैसे शिखर आकाश की तरफ उठने लगते हैं। उस ऊपर उठते शिखर के साथ तुम्हारे जीवन की पूरी ऊर्जा नए अर्थ ग्रहण कर लेती है; नए आयाम, नया रंग, रंगों के नए-नए भेद; नया संगीत, संगीत की नई-नई भाव-भंगिमाएं। एक नए ही काव्य का उदय हो जाता है। जिन्होंने निष्क्रियता जानी उन्होंने सब जाना। और जो कर्म के ही जाल में दौड़ते-दौड़ते नष्ट हो गए वे बिना कुछ जाने मर गए।
'अकर्म पर अवधान दो। अटेंड टु नो-अफेयर्स।'
और जब तुम्हारी निष्क्रियता सध जाए-क्योंकि पहले तो निष्क्रियता साधो-जब सध जाए, तो यह जो निष्क्रियता की स्थिति है, इस पर ध्यान दो। पहल कर्म पर ध्यान दो, ताकि व्यर्थ कर्म कट जाए, निष्क्रियता बचे। अब निष्क्रियता पर ध्यान दो। क्योंकि निष्क्रियता पर अगर तुमने ध्यान दिया तो तुम पाओगे...।
कर्म पर ध्यान देने से कर्ता मिट जाता है। क्योंकि धीरे-धीरे सब कर्म शांत हो जाते हैं; निष्क्रियता का उदय हो जाता है; तुम्हारे कर्ता का भाव चला जाता है कि मैं कर्ता हूं। जब कुछ कर ही नहीं रहे हो तो कर्ता कहां? तुम होते हो, कर्ता नहीं होते; साक्षी बन जाते हो। फिर निष्क्रियता पर ध्यान दो, तो तुम साक्षी भी न रह जाओगे। बस तुम बचोगे। कहने को कुछ भी न रहेगा कि तुम कौन हो–कर्ता कि साक्षी।
___तो तीन स्थितियां हैं : कर्ता; अकर्ता, अकर्ता यानी साक्षी; और फिर एक तीसरी स्थिति है दोनों के पार, अतिक्रमण, ट्रांसेंडेंस।
348