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________________ 339 др ष्क्रियता लाओत्से का मूल स्वर है। इसे बहुत गहरे से समझ लेना जरूरी है। कठिनाई बढ़ जाती है और भी, क्योंकि निष्क्रियता को हम अक्सर अकर्मण्यता समझ लेते हैं। शब्द निषेधात्मक है, लेकिन स्थिति निषेध की नहीं है । निष्क्रियता शब्द तो नकार का है, लेकिन स्थिति बड़ी अकारात्मक है। निष्क्रियता का अर्थ आलस्य नहीं है, और न अकर्मण्यता है। निष्क्रियता का अर्थ है : शक्ति तो पूरी है, ऊर्जा तो भरपूर है; उपयोग नहीं है। भीतर तो ऊर्जा पूरी भरी है, लेकिन वासनाओं की दिशा में उसकी दौड़ रोक दी गई है। आलस्य में ऊर्जा का अभाव है। सुबह-सुबह तुम पड़े हो अपने बिस्तर में; उठने की ताकत ही नहीं पाते हो । अभाव है, कुछ कम है; शक्ति ही मालूम नहीं पड़ती। एक करवट और लेकर सो जाते हो। इसे तुम निष्क्रियता मत समझना। यह अकर्मण्यता है । करना तो तुम चाहते हो, करने की शक्ति नहीं है। ठीक इससे उलटी है निष्क्रियता । करना तुम नहीं चाहते करने की शक्ति बहुत है । चाह चली गई है, शक्ति नहीं गई। आलसी की चाह तो है, शक्ति नहीं है। ज्ञानी की चाह चली गई; चाह के जाते ही बहुत शक्ति बच गई। क्योंकि चाह में जो शक्ति नष्ट होती थी अब उसके नष्ट होने की कोई जगह न रही। सब छिद्र बंद हो गए। सब द्वार - बंद हो गए। तो ज्ञानी में और आलसी में तुम्हें कभी-कभी समानता दिखाई पड़ेगी; क्योंकि ज्ञानी भी कुछ करता नहीं, आलसी भी कुछ करता नहीं। पर दोनों के कारण अलग-अलग हैं। और ठीक से समझ लेना, अन्यथा लाओत्से को पढ़ कर बहुत से लोग निष्क्रिय न होकर आलसी हो जाते हैं। मेरे पास मेरे ही संन्यासी आकर कहते हैं कि आप ही तो समझाते हैं कि निष्क्रिय हो रहो। फिर आप ही कहते हैं: ध्यान करो, काम करो। तो आप तो उलटी बातें समझा रहे हैं। आलसी होने को नहीं समझा रहा हूं। तुम आलसी होना चाहोगे। कौन नहीं होना चाहता? मैं कह रहा हूं, च छोड़ो। चाह को तो तुम भलीभांति पकड़े हो; उसे नहीं छोड़ते सुन कर । लेकिन निष्क्रियता जंच जाती है मन को । यह तो बड़ी अच्छी बात हुई, कुछ भी नहीं करना है; ध्यान भी नहीं करना है। सुबह छह बजे उठ कर ध्यान के लिए आना पड़ता है। तो संन्यासी मुझसे आकर कहते हैं कि एक तरफ आप समझाते हैं कि सहज हो जाओ और सुबह तो उठने का मन होता ही नहीं। इधर समझाते हैं निष्क्रिय हो जाओ, तो निष्क्रिय हम होते हैं तो बिस्तर में ही पड़े रहते हैं। उधर कहते हैं ध्यान करने आ जाओ । इसको तुम निष्क्रियता मत समझ लेना। यह शुद्ध आलस्य है। आलस्य जहर है, और निष्क्रियता अमृत है । इतना फासला है उनमें। जमीन-आसमान का अंतर है। और मन बहुत चालाक है। वह हमेशा ठीक को गलत से
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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