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ताओ उपनिषद भाग ५
संत तो इसे अपने स्वभाव की तरह पहचान लेता है। और जब यह स्वभाव हो जाता है, तभी कोई तुम्हें लूट नहीं सकता। और जब यह स्वभाव हो जाता है, तभी भय समाप्त हुआ। अब यह कभी तुमसे छीना न जा सकेगा। संत आश्वस्त हो जाता है। इसलिए तो तुम संत को इतना शांत पाते हो, क्योंकि उसे आश्वासन मिल गया, अब उससे कुछ छीना नहीं जा सकता। और उसने जो पा लिया है उसका अब कोई अंत नहीं है। अब वापस लौटने का उपाय न रहा। अब वह मंजिल के साथ एक हो गया।
तब तक मत रुकना। खजाना बना कर मत अपने को समझा लेना। वह काफी नहीं है। अच्छा है, काफी नहीं है। कुछ न कर सको तो ठीक है, लेकिन अंत नहीं है। मार्ग हो सकता है, मंजिल नहीं है। उससे भी आगे जाना है। उसे अगर पड़ाव बनाओ तो चल जाएगा, लेकिन आखिरी विश्राम मत बना लेना। वह घर नहीं है, राह की धर्मशाला हो सकती है। वहां सदा के लिए नहीं रुक जाना है। वहां एक रात विश्राम करके आगे बढ़ जाना है।
'और दुर्जन की पनाह।'
अगर ताओ को पनाह बनाओ, परमात्मा को पनाह बनाओ, तो भी जितने जल्दी हो उतनी जल्दी करना। कहीं यह पनाह बनाना सिर्फ पोस्टपोन करने का, स्थगन करने का उपाय न हो जाए।
लोग मेरे पास आते हैं, वे हमेशा कहते हैं, कल करेंगे, संन्यास कल लेना है। कल बीतते चले जाते हैं। वे जब भी आते हैं, वे फिर कहते हैं, कल लेंगे। कुछ तो ऐसे लोग हैं जो पांच साल से मेरे पास आते होंगे। जब भी आते हैं, वे कहते हैं, बस तैयारी कर रहा हूं; थोड़े दिन की बात है। पांच साल गुजार दिए उन्होंने, वे पचास साल भी गुजार देंगे। उन्हें अपने धोखे का पता नहीं चल रहा है।
जो करना हो उसे कर लेना; उसे तत्क्षण कर लेना। कल का क्या भरोसा है? कल कभी आता है? कल कभी आया है? कभी सुना कि कल आया हो? जो आता ही नहीं, उस पर टालना मत। टालना ही हो तो साफ कह देना कि यह मेरे लिए करना ही नहीं है। बात साफ हो गई। लेकिन टाल कर धोखा मत देना। क्योंकि टालने में एक तरकीब है। तुम अपने को यह भी समझाए रहते हो कि यह करना तो है, कल करना है। इसलिए मन अहंकार से भी भरा. रहता है कि करना तो जरूर है, सिर्फ समय की बात है। स्थिति साफ नहीं हो पाती कि तुम कहां खड़े हो।
दुर्जन की पनाह है धर्म। तुम उसे पनाह मत बनाना; बचना। खजाना बनाना। और खजाने को भी पर्याप्त मत समझना। स्वभाव तक ले जाना है यात्रा को। जब तक स्वभाव न हो जाए तब तक भटकने के उपाय कायम हैं। खजाना भी खो जाएगा। पनाह में तो मिला ही नहीं है, खोया ही हुआ है।
'सुंदर वचन बाजार में बिक सकते हैं, श्रेष्ठ चरित्र भेंट में दिया जा सकता है।'
लेकिन होगा यह सब ऊपर-ऊपर। ऐसे ही तो तुम ज्ञानी बने हो कि सुंदर वचन तुमने बाजार से खरीद लिए हैं। लेकिन लाओत्से कहता है, कुछ खरीदना ही हो तो सुंदर वचन ही खरीदना, क्योंकि वहां और कचरा चीजें भी बिक रही हैं। सुंदर वचन भी अंततः कचरा हैं, लेकिन कम से कम उनमें तुम्हारी प्यास की थोड़ी झलक तो मिलती है। खरीदना ही हो तो कुछ और न खरीद कर आचरण खरीदना; हालांकि वह आचरण बहुत गहरा नहीं होगा। लेकिन कम से कम कुछ तो होगा। खजाना ही बनाना हो तो इस संसार के सिक्कों का मत बनाना; जब उस संसार के सिक्कों का खजाना बनने की सुविधा है तो उसको ही बनाना। धन ही इकट्ठा करना हो तो पुण्य का करना।
लाओत्से यह नहीं कह रहा है कि यहां रुक जाना। 'सुंदर वचन बाजार में बिक सकते हैं।'
बिक रहे हैं। बाइबिल खरीद सकते हो। गीता खरीद सकते हो। वेद खरीद सकते हो। सब खरीदा जा सकता है। बुद्ध, महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट, सब के वचन बाजार में बिक रहे हैं। अगर कुछ खरीदना ही हो तो वचन खरीदना।
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