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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ ज्ञानी को तुम हरा न सकोगे। हरा तो तुम सकते थे जब उसकी कोई सीमा होती, कोई पक्ष होता। वह तो निष्पक्ष है। उसका कोई भाव भी नहीं है। तुम उसकी जेब काट सकते हो, लेकिन तुम उसके भरोसे को न डिगा सकोगे। तुम उसे धोखा दे सकते हो। और ऐसा नहीं है कि धोखा उसे दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि वह तो निर्मल दर्पण की तरह है, तुम जो भी करते हो वह सभी दिखाई पड़ता है। लेकिन धोखे के पार तुम भी उसे दिखाई पड़ते हो। और तुम्हारी महिमा अनंत है। धोखा ना-कुछ है। धोखे का जो कृत्य है, उसका कोई मूल्य नहीं है। वह जो तुम्हारे भीतर छिपा है महिमावान, उसका ही मूल्य है। उसका भरोसा तुम पर है, तुम्हारे कृत्यों पर नहीं। तुम क्या करते हो, इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता तुम्हारे होने में। तुम कैसे हो, कैसा तुम्हारा वर्तन है, आचरण है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता तुम्हारी आंतरिक प्रतिमा में। और ज्ञानी उस प्रतिमा को देख रहा है, जहां परमात्मा का वास है। तो तुम्हारे आचरण से कोई भेद नहीं पड़ता। उसका अपना कोई भाव नहीं है कि तुम क्या करो। वह तुम्हें परिपूर्ण स्वतंत्रता देता है। इसे थोड़ा समझो। अगर तुम्हारे पास कोई भी भाव है, धारणा है, तो तुम अपने प्रियजनों को भी कोई स्वतंत्रता नहीं दे सकते। क्योंकि तुम चाहोगे कि वे तुम्हारे भाव के अनुकूल हों। और तुम उनके हित में ही चाहोगे कि वे तुम्हारे भाव के अनुकूल हों। यह ज्ञानी का लक्षण न हुआ। यह अज्ञानी का लक्षण है। - अज्ञानी प्रेम के माध्यम से भी कारागृह खड़ा करता है। वह अपने बच्चों को भी चाहता है वे ऐसे हो जाएं। कोई उसको गलत भी न कह सकेगा। क्योंकि वह बच्चों को अच्छा ही बनाना चाहता है। लेकिन अच्छे बनाने की चेष्टा भी बच्चों के भीतर छिपे परमात्मा का अस्वीकार है। क्योंकि अच्छे बनाने की चेष्टा में भी तुम मालिक हुए जा रहे हो। तुमने बच्चों की उनकी अपनी मालकियत छीन ली। खलील जिब्रान ने कहा है, तुम बच्चों को प्रेम देना, लेकिन आचरण नहीं; तुम प्रेम देना, लेकिन अपना ज्ञान नहीं। तुम प्रेम देना और तुम्हारे प्रेम के माध्यम से स्वतंत्रता देना; ताकि वे वही हो सकें जो होने को पैदा हुए हैं। तुम उनकी नियति में बाधा मत डालना। लेकिन बड़ा मुश्किल है कि बाप बेटे की नियति में बाधा न डाले कि मां बेटे की नियति में बाधा न डालेकि. शिक्षक शिष्य की नियति में बाधा न डाले। वे बाधा डालेंगे, और तुम्हारे हित में ही बाधा डालेंगे। संत खुला आकाश है। वह तुम्हें बिलकुल बाधा न डालेगा। वह तुम्हारे लिए मार्ग भी दिखाएगा, तो भी चलने का आग्रह न करेगा। वह खुद ही मार्ग है-खुला हुआ। तुम्हें चलना हो तो चलना; तुम्हें न चलना हो न चलना; तुम्हें । लौटना हो लौट जाना। वहां कोई आग्रह न होगा। सत्य का आग्रह भी न होगा। संत निराग्रही होगा। तीन तरह के लोग हैं : असत्य-आग्रही, सत्याग्रही और अनाग्रही। संत उसमें तीसरी कोटि का है : अनाग्रही। उसका सत्याग्रह भी नहीं है कि वह अनशन करके बैठ जाए कि अगर तुम मेरे अनुसार न चले तो मैं मर जाऊंगा। तुम्हारा सत्य दूसरे का सत्य नहीं हो सकता। तुम्हारे लिए जो सत्य है, वह दूसरे का भी सत्य बन जाए, यह कोशिश ही आग्रह है। पहले तो यही पक्का नहीं है कि तुम्हारा जो सत्य है, वह तुम्हारा भी सत्य है! और यह भी पक्का हो जाए कि तुम्हारा सत्य तुम्हारा सत्य है, तो भी कैसे निर्णय लिया जा सकता है कि यह दूसरे का सत्य भी होगा। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की अपनी नियति है, अपनी स्वतंत्रता है, अपना यात्रा-पथ है। जन्मों-जन्मों से प्रत्येक व्यक्ति अपनी अनूठी चाल, अपनी अनूठी यात्रा पर निकला हुआ है। इन बातों को खयाल में ले लें; फिर लाओत्से के ये अदभुत वचन समझने की कोशिश करें। . 'संत के कोई अपने निर्णीत मत व भाव नहीं होते; वे लोगों के मत व भाव को ही अपना मानते हैं।' निर्णीत मत आमतौर से बड़ी बहुमूल्य बात समझी जाती है। हम सोचते हैं कि जिस आदमी के निर्णीत मत हैं, वह बड़ा सुदृढ़ आदमी है। और जिस आदमी का कोई निर्णीत मत नहीं है, वह आदमी संदिग्ध, संशय में पड़ा है। 24
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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