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________________ धारणारहित सत्य और शर्तरहित श्रद्धा सत्य जब धारणाओं में बंधा होता है और शास्त्रों में कैद होता है, तब वह जंजीरों में पड़ा होता है। उसमें प्राण नहीं होते और पंख नहीं होते, जिनसे वह आकाश में उड़ जाए। सत्य जब निर्धारणा में उतरता है, तब वह मुक्त होता है। तब उस पर कोई जंजीरें नहीं होती और कोई दीवाल नहीं होती, वह किसी कारागृह में बंद नहीं होता, तब खुले आकाश की भांति होता है। ज्ञान खुला आकाश है, कोई कारागृह का आंगन नहीं। . तुम्हारे मन में जितनी धारणाएं हैं, सब कारागृहों के आंगन हैं। नाम अलग होंगे; कोई हिंदू का कारागृह है, कोई मुसलमान का, कोई ईसाई का, कोई जैन का। लेकिन सभी मान्यताएं कारागृह हैं। और सभी मान्यताओं के बाहर जो आ जाए, वही ज्ञानी है। ज्ञानी के पास अपना कोई विचार नहीं होता। वह तो दीए की भांति जीता है; जो आ जाता है, वही दिखाई पड़ने लगता है। और ज्ञानी के पास अपना कोई भाव भी नहीं होता कि वह किसी को बुरा कहे और किसी को भला कहे। उसके मन में न किसी की निंदा होती है और न किसी की प्रशंसा होती है। वह न तो चोर को चोर कहता है, न साधु को साधु कहता है। उसके लिए तो द्वंद्व का सारा जगत मिट गया; उसके लिए द्वैत न रहा, दुई न रही। उसके लिए तो अब एक ही है। और वह एक परम शुभ है। उस एक का होना ही एकमात्र शुभ है, एकमात्र मंगल है। इसलिए तुम ज्ञानी को धोखा न दे सकोगे। नहीं कि तुम ज्ञानी को धोखा नहीं दे सकते, तुम दे सकते हो। लेकिन ज्ञानी को तुम न दे सकोगे, क्योंकि ज्ञानी धोखे को मानता ही नहीं। वह तुम पर भी भरोसा करता है। तुम उसे कितना ही धोखा दिए जाओ, वह बार-बार तुम पर भरोसा किए चला जाएगा। उसके भरोसे का कोई अंत नहीं है। तुम उसके भरोसे को न चुका सकोगे; तुम ही चुक जाओगे, तुम ही हारोगे। ज्ञानी से जीतने का कोई उपाय नहीं; देर-अबेर तुम्हें हारना ही पड़ेगा। बड़ी प्रसिद्ध कथा है। एक झेन फकीर नदी में खड़ा है और एक बिच्छू डूब रहा है। तो उसे उठाता है हाथ में और किनारे पर रख देता है। जब तक वह उठाता है और किनारे पर रखता है तब तक वह दस-पांच बार डंक मार देता है। बिच्छू का स्वभाव है; कोई कसूर नहीं है। इसमें कुछ न होने जैसा भी नहीं है, अनहोना भी नहीं है। बिच्छू का स्वभाव है। वह उसे किनारे पर रख देता है। बिच्छु फिर पानी में उतर कर तैरने लगता है। वह उसे फिर बचाने के लिए किनारे पर रखता है। जैसा कि तुमने देखा होगा, पशुता में एक तरह की गहरी जिद्द। पशुता जिद्दीपन है। सभी पशु हठयोगी हैं। तुम किसी चींटे को हटाओ, फिर वहीं भागेगा जहां से हटाया गया है। इसमें चुनौती हो जाती है। तुम एक मक्खी को उड़ाओ, वह वापस वहीं बैठ जाएगी जहां से तुम्मे उड़ाई थी। जब तक तुम उसको छोड़ ही न दोगे उसके हाल पर, तब तक वह चुनौती से संघर्ष लेगी। उसके अहंकार को भी चोट लगती है। तुम हो कौन हटाने वाले? तुमने समझा है कि यह नाक तुम्हारी है जिस पर मक्खी बैठ रही है। मक्खी के लिए यह केवल उड़ने के बाद विश्राम करने का स्थल है। तुम हो कौन बीच में बाधा डालने वाले? तुम नाक भी काट लो तो भी मक्खी वहीं उतरेगी। बिच्छू को जैसे-जैसे वह उठा कर बाहर रखता, बिच्छू वापस पानी में दौड़ता। एक आदमी किनारे खड़ा था, उसने कहा कि तुम पागल हो गए हो–उसका सारा हाथ नीला पड़ गया है-मरने दो इस बिच्छू को, तुम्हें क्या पड़ी है? और वह बिच्छू तुम्हें काट रहा है। उस झेन फकीर ने कहा, जब बिच्छू अपना स्वभाव नहीं छोड़ता तो मैं कैसे अपना स्वभाव छोडूं? जब बिच्छू नहीं मानता, काटे चला जाता है, और वापस लौट कर आ जाता है पानी में, तो मैं कैसे मानूं? जैसे बिच्छू का काटना स्वभाव है वैसे साधु का बचाना स्वभाव है। मैं कुछ कर नहीं रहा हूं, सिर्फ मैं अपने स्वभाव के अनुसार वर्तन कर रहा हूं। बिच्छु अपने स्वभाव के अनुसार वर्तन कर रहा है। देखना यह है कि बिच्छ जीतता है कि साध! 23
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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