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________________ ताओ उपनिषद भाग ५ मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि आपने जो बात कही, वह बहुत जंची, बिलकुल सच है। मैं उनसे पूछता हूं, तुमने जानी कैसे कि सच है? तुमने किस मापदंड से मापी? तुम्हें सत्य का पता है? तो ही तुम जांच सकते हो। हां, वे कहते हैं, सत्य का पता है। आपने वही कहा जो हमारे मन में भी छिपा है। आपने वही कहा जो हम पहले से ही मानते रहे हैं। सत्य की परिभाषा लोगों की यह है : अगर उनकी मान्यता के अनुकूल हो। तुम तो सत्य हो; तुम्ही कसौटी हो जैसे। अब रही बात इतनी कि तुम्हारे अनुकूल जो पड़ जाए, वह भी सत्य हो जाएगा। कुछ लोग हैं, वे कहते हैं, आपने जो बात कही, वह जंचती नहीं, मन को भाती नहीं; सत्य नहीं मालूम होती। तर्क से भला ठीक हो; आप समझाते हैं, तब ठीक भी लग जाती है; लेकिन ठीक है नहीं, अंतःकरण साथ नहीं देता। क्या है तुम्हारा अंतःकरण? तुम्हारी धारणाएं? तुम्हें बचपन से जो सिखाया गया? तुम्हारे खून में जो डाला गया? मां के स्तन से दूध के साथ-साथ तुमने मां का धर्म भी पीया है। पिता का हाथ पकड़ने के साथ-साथ पिता की धारणाएं भी तुम्हारे जीवन में उतर गई हैं। तुम्हारा सीखा हुआ तुम्हारा अंतःकरण है! तुम उससे जांच करते हो-अगर मेल खा जाए सच, अगर मेल न खाए तो झूठ। तो कसौटी तुम हो। और जिसने यह समझ लिया कि मैं कसौटी हूं सत्य की, वह सदा भटकता रहेगा। ज्ञान की कोई कसौटी नहीं; ज्ञान तो निर्मल है। ज्ञान का अपना कोई भाव नहीं; ज्ञान तो निर्भाव है। ज्ञान तो बस कोरे दर्पण की भांति है; जो है, उसे प्रकट कर देगा। जो है, बिना व्याख्या के, अपने को बीच में डाले बिना, अपने को जोड़े बिना, प्रकट कर देगा। ज्ञान निष्पक्ष है। कबीर ने कहा, पखापखी के पेखने सब जगत भुलाना। पक्ष और विपक्ष के उपद्रव में सारा जगत भटका हुआ है। ज्ञान का न तो कोई पक्ष है और न कोई विपक्ष। ज्ञान का कोई मत नहीं, कोई दल नहीं। ज्ञान तो शुद्ध दर्शन है। ज्ञान कोई विचार ही नहीं; वह तो निर्विचार प्रतिबिंब की क्षमता है—दि कैपेसिटी टु रिफ्लेक्ट। दर्पण को तुम ले आते हो घर में। दर्पण अगर पहले ही किसी चित्र से भरा हो तो तुम्हारे काम न आएगा। और दर्पण तुम्हें बताता है। ऐसा हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन एक जंगल से गुजरता था, किसी राही का गिरा हुआ दर्पण मिल गया। कभीदर्पण उसने पहले देखा नहीं था। दर्पण देखा, शक्ल कुछ पहचानी सी लगी; बाप से मिलती-जुलती थी। अपनी शक्ल तो देखी नहीं थी। दर्पण कभी देखा न था। बाप की शक्ल देखी थी। दर्पण देखा, बाप से मिलती-जुलती थी। नसरुद्दीन ने कहा, अरे बड़े मियां, हमने कभी सोचा भी न था कि तुमने फोटो उतरवाई है। अच्छा हुआ, कोई और न उठा ले गया। कहां से आ गई यह फोटो तुम्हारी? पिता तो चल बसे थे। पिता की फोटो समझ कर सम्हाल कर घर ले आया। कई बार रास्ते में देखी, हमेशा फोटो वही थी। पिता की फोटो थी; स्मृति के लिए सम्हाल कर मकान के ऊपर, जहां अपनी गुप्त चीजें रखता था, वहीं छिपा कर उसने रख दी। रोज जाकर सुबह नमस्कार कर आता था। पत्नी को शक होना शुरू हुआ—किसलिए रोज ऊपर जाता है? बताता भी नहीं। एक दिन जब मुल्ला बाहर था तो वह ऊपर गई, देखा। अपनी ही शक्ल पाई दर्पण में। बड़ी नाराज हो गई। तो कहा कि इस बुढ़िया के पीछे दीवाने हुए हो! वह समझी कि प्रेयसी की तस्वीर रखे हुए है। अपनी ही फोटो दिखी। कभी दर्पण तो देखा न था। तो सोचा कि अच्छा, तो इस चुडैल के पीछे दीवाने हुए जा रहे हो! दर्पण में तो तुम्हीं दिखाई पड़ोगे। दर्पण के पास अपनी कोई धारणा नहीं है। और अगर तुम्हें आखिरी दर्शन करना हो जीवन का तो तुम्हें ऐसा ही दर्पण हो जाना पड़ेगा जिसकी कोई धारणा नहीं। तभी तुम्हारे आर-पार जो बहेगा वह सत्य है। तुम्हारी धारणाओं में ढल कर जो बहेगा वह असत्य हो गया, तुम्हारे कारण असत्य हो गया। वह नकली हो गया; वह असली न रहा। ढांचा तुमने दे दिया। और तुम्हारे ढांचे के कारण उसकी जो असीमता थी, अनंतता थी, निराकार रूप था, वह सब खो गया। अब वह एक क्षुद्र चीज हो गई। 22
SR No.002375
Book TitleTao Upnishad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages440
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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